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सकता है। पर कुछ कर्म ऐसे भी हैं, जिनमें किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। वे निकाचित कर्म हैं। जो निकाचित नहीं हैं, वे दलिक कर्म कहलाते हैं। साधना के द्वारा हम उन दलिक कर्मों में परिवर्तन कर सकते हैं। उनकी स्थिति का ह्रस्वीकरण किया जा सकता है, रस-विपाक का मंदीकरण किया जा सकता है।
निकाचित कर्मों का बंधन तीव्र अध्यवसाय या परिणामों के कारण ही होता है। इसलिए इन्हें अपवादरूप मानकर साधक शेष कर्मों की निर्जरा के लिए साधना का पुरुषार्थ करता रहे, यह
अपेक्षित है। देखें-निर्जरा। निगोद-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के सूक्ष्म जीव, जो
समूचे लोक में फैले हुए हैं तथा साधारण वनस्पति के जीव निगोद के जीव कहलाते हैं। ये एक मुहूर्त (अड़तालीस मिनट का कालमान) में ६५५३६ भव (जन्म-मृत्यु) कर लेते हैं। यह जीव की न्यूनतम
विकसित अवस्था है। निर्जरा• तपस्या के द्वारा कर्ममल का विच्छेद होने पर आत्मा की जो
उज्ज्वलता होती है, उसे निर्जरा कहते हैं। • कारण को कार्य मानकर तपस्या को भी निर्जरा कहा गया है। उसके
अनशन, ऊनोदरी आदि बारह भेद हैं। • सकाम और अकाम के रूप में वह दो प्रकार की भी होती है। जो
मात्र आत्म-शुद्धि के लक्ष्य से तथा शुद्ध साधनों के द्वारा की जाती है, वह सकाम निर्जरा है। जिसमें इस लक्ष्य और साधन-शुद्धि की बात नहीं होती, वह अकाम निर्जरा है। यह दोनों प्रकार की निर्जरा
सम्यक्त्वी एवं मिथ्यात्वी दोनों के होती है। पाप-प्राणी के अशुभरूप में उदय आनेवाले कर्म पाप हैं। अशुभ कर्मों के
बंधन का कारण असत्प्रवृत्ति है। उपचार से असत्प्रवृत्ति को भी पाप कहा गया है। प्राणातिपात, मृषावाद आदि उसके अठारह प्रकार हैं। ___ पाप रूप में उदय में आने से पूर्व बंध अवस्था में रहे अशुभ कर्मों को द्रव्य पाप तथा अशुभ रूप में आने पर उन्हें भाव पाप
कहते हैं। पुण्य-शुभरूप में उदय में आनेवाले कर्म-पुद्गल पुण्य हैं। पुण्योदय से जीव
पारिभाषिक कोश
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