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________________ 197 समता की चेतना का विकास वासना है। सारे दीपक बुझ जाते हैं, मिट जाते हैं। ये चार अवस्थाएं हैं। हम पहले ही चरण में क्षयीकरण की बात नहीं सोच सकते। क्रमिक साधना करनी होगी। विकास धीरे-धीरे होगा। अनेक महीनों तक ध्यान करने वाला भी क्रोध में आ सकता है, अन्यान्य वृत्तियों के चक्र में फंस सकता है। उसे देखकर लोग कह देते हैं, देखो, यह है कैसा ध्यानी! एक ओर ६ यान की साधना करता है और दूसरी ओर ऐसा व्यवहार करता है। यह विरोध भास अवश्य है। पर वे इस बात को भूल जाते हैं कि अभी यह मंजिल तक नहीं पहुंचा है, चल रहा है, वृत्तियों के विफलीकरण की बात सीख रहा है। धीरे-धीरे इन वृत्तियों से छूट जाएगा। यदि हमने यह मान लिया कि ध्यान करने वाले को गुस्सा आना ही नहीं चाहिए तो हमने भी ठीक वैसा ही विरोधाभास पाल लिया. जैसा दूसरे लोगों ने पाल रखा है। बच्चे ने पिता से कहा-'पिताजी! आज सूर्यास्त देखने चलना है।' पिता बोला, मैं तो आज अभी बहुत व्यस्त हूं। कल सबेरे सूर्यास्त देखने चलेंगे।' सूर्यास्त देखना है और उसे सबेरे देखना है, कितना बड़ा विरोधाभास! आदमी भी अनेक प्रकार के विरोधाभासों का जीवन जीता है और उनको पालता भी चला जाता है। ध्यान करने वाला अभी सिद्ध नहीं है, साधक है। उसका लक्ष्य है समता की चेतना का विकास, वीतराग चेतना का विकास। यह विकास साधना काल-सापेक्ष है। लंबी प्रक्रिया है। हजारों-हजारों जन्मों के संस्कार एक ही प्रहार से टूट जाएं, यह कभी संभव नहीं है। इसके लिए तीव्र प्रयत्न, लंबा काल और दृढ़ धैर्य अपेक्षित होता है। हजारों जन्मों के इन संस्कारों ने हमारी चेतना को इतना विषम बना डाला कि हम थोड़े से प्रयत्न में उसका समीकरण नहीं कर सकते। हमारा लक्ष्य निश्चित है। हम यदि इस लक्ष्य के अभिमुख होते हैं तो धीरे-धीरे वहां पहुंच भी सकते हैं। तेज चलने वाला जल्दी पहुंच जाता है और धीरे चलने वाला विलंब से पहुंच पाता है। पहुंचेंगे दोनों, चाहे शीघ्रता से या विलंब से। चलत् पिपीलिका याति, योजनानि शतान्यपि । अगच्छन् वैनतेयोपि, पदमेकं न गच्छति ।। गरुड़ यदि शांत, स्थिर, एक ही स्थान पर बैठा रहता है तो वह एक कदम भी मार्ग तय नहीं कर पाता और एक क्षुद्र चींटी चलती-चलती सैकड़ों योजन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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