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समता की चेतना का विकास
195 नरक या स्वर्ग मिलता है। पर तुम्हारे विश्वास के अनुसार मेरे लिये आज अच्छा हुआ कि मैंने तुम्हारा मुंह देखा, मैं स्वर्ग में जाऊंगा।
विषमता की चेतना से ऐसा स्वर नहीं निकल पाता। समता की चेतना से ओत:प्रोत व्यक्ति ही ऐसा सोच सकता है, कह सकता है।
अनेक घटनायें हैं। आदमी विषमता में भी समता ढूंढ़ निकालता है। ऐसा करने वाला कभी दु:खी नहीं होता। . बादशाह और बीरबल जा रहे थे। साथ में शाहजादा भी था। कुछ दूर गये। गर्मी लगी। बादशाह ने अपना लिवास उतारा और बीरबल के कन्धों पर रख दिया। शाहजादे ने भी ऐसा ही किया। बीरबल शांत था। कपड़ों का भार लादे वह साथ-साथ चल रहा था। बादशाह ने व्यंग्य के स्वरों में कहा—'अरे बीरबल! आज तो तुम एक गधे का बोझ उठाये हुए हो।' बीरबल ने सुना। कोई दूसरा होता तो आग-बबूला हो जाता। बीरबल ने हंसते हुए कहा- 'जहांपनाह! एक गध का नहीं दो गधों का भार ढो रहा हूं।'
ऐसी बात वही कह सकता है, जिसने विषमता को कम किया है। निष्कर्ष की भाषा में सोचें तो सामाजिक सन्दर्भ में भी हमने उस व्यक्ति के चिन्तन को या व्यवहार को मूल्य दिया है जिसने समतापूर्ण व्यवहार किया है, विषमता को कम करने का प्रयास किया है।
समता का जागरण एक साथ नहीं होता। इर आदमी का सामान्य संस्कार है विषमता। यह रक्तगत है। इससे एक साथ छुटकारा पाना सम्भव नहीं है। किन्तु यदि हम सत्य के और अधिक निकट जायें तो नया प्रकाश मिलेगा। हमारे व्यक्तित्व के दो मुख्य अंग हैं शरीर और आत्मा। हम जीते हैं शरीर के स्तर पर और जीने के पीछे प्रकाश है आत्मा का। वह अमिट प्रकाश है, अमिट लौ है जो कभी बुझती नहीं। शरीर एक आवरण है। वह उस प्रकाश को ढांकने का प्रयास करता है, लौ को बुझा देना चाहता है। किन्तु आत्मा की ज्योति अखंड है, अमिट है, बुझ नहीं सकती। बस, यही हमारे लिए विश्वास और आश्वास का स्थल है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में इसे 'पारिणामिक भाव' कहा है। यह भाव है इसीलिए आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, अन्यथा इतना दबाव है परिस्थितियों का, कर्म-परमाणुओं का और शरीर का कि उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। किन्तु यह शाश्वत भाव है पारिणामिक, जो अपने अस्तित्व को सदा बनाये रख रहा है। उसके आधार पर हमारे शरीर की संरचना भी ऐसी
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