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________________ सबकी गति : मेरी गति ४१ जंगल का मामला था। मालिक ने सौ रुपये दे दिए। मिस्त्री ने हथौड़ा लिया, एक स्थान पर चोट मारी और कार स्टार्ट हो गई। मालिक ने मिस्त्री से कहा- 'तुमने मेरे साथ न्याय तो नहीं किया। एक चोट दी और सौ रुपये ऐंठ लिए। यह तो उचित नहीं हुआ।' 'बाबूजी? आप समझे नहीं। मैंने इस चोट का मात्र एक रुपया ही लिया 'बाकी निन्यानवें रुपये किस बात के?' 'बाबूजी! चोट कहां करनी चाहिए, इस बात के निन्यानवें रुपये हैं।' पहला प्रश्न है-चोट कहां करनी चाहिए? इन्द्रियातीत चेतना में जीने वाले व्यक्ति के लिए मूर्छा एक पारमार्थिक तत्त्व है। उसे सबसे पहले मूर्छा पर चोट करनी चाहिए। व्यक्ति को इन्द्रियों से काम लेना है, आंख से देखना है, कान से सुनना है, जीभ से चखना है पर उनके साथ जो मूर्छा जुड़ी हुई है उससे मुक्त होना है। जब मूर्छा पर प्रहार होगा, व्यक्ति इन्द्रियातीत चेतना में जीने में विश्वास करेगा और वही धर्म का आदि-बिन्दु होगा। सिक्का नास्तिक का ही चल रहा है। ___चिंतन की इन दोनों धाराओं के बीच में एक भेद-रेखा है। उसे समझना आवश्यक है। एक वह खेमा है, जो इन्द्रिय चेतना में विश्वास करता है और दूसरा वह खेमा है, जो अतीन्द्रिय चेतना में विश्वास करता है। अतीन्द्रिय चेतना का भेद समझ में नहीं आएगा तब तक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होगा, श्रद्धा प्राप्त नहीं होगी। कभी-कभी प्रश्न उभरता है-अस्तिक दर्शन नास्तिक दर्शन का खण्डन करते हैं, चार्वाक दर्शन को अच्छा नहीं मानते। उसका मजाक भी उड़ाते हैं, उसकी मान्यता को इस रूप में प्रस्तुत करते हैं पिब खाद च चारुलोचने, यदतीतं वरगात्र तन्न ते। न हि भीरुगतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ।। खूब खाओ, पीओ, मौज करो। बार-बार जीवन थोड़े ही मिलेगा। धार्मिक भी कहते हैं-बार-बार मनुष्य जीवन थोड़े ही मिलेगा! नास्तिक भी कहेगा-जितनी मौज करनी हैं, करलें। यह मनुष्य का जीवन बार-बार थोड़े ही मिलेगा। दोनों तर्क एक समान हैं। सिद्धान्त की दृष्टि से कोई आस्तिक हो सकता है किन्तु व्यवहार और आचरण में कौन नास्तिक नहीं है? इस बात की गम्भीरता में जाएं तो लगेगा-मनुष्य का आचरण और व्यवहार नास्तिक जैसा है। एक आस्तिक व्यक्ति धर्म, आत्मा, परमात्मा और कर्म फल-इन सारी बातों को मानने वाला है किन्तु जहां इन्द्रिय सुखों का प्रश्न है, कौन आस्तिक नास्तिक से पीछे है? आगे भी हो सकता है। वासनाजन्य सुख में कोई आस्तिक नास्तिक से पीछे नहीं है। कहा जा सकता है—विचारधारा में कोई आस्तिक हो सकता है किन्तु सिक्का नास्तिक का ही चल रहा है। एकला चलो उत्तराध्ययन सूत्र जीवन-दर्शन का सूत्र है। उसमें जीवन का बहुत सुन्दर दर्शन दिया गया है-तुम अपने दर्शन को, दृष्टि को साफ करो। सबकी गति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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