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________________ सबकी गति मेरी गति प्रमाण की श्रृंखला : इन्द्रिय प्रत्यक्ष से आगम तक नास्तिक मत में, चार्वाक दर्शन में धर्म कोई आवश्यक तत्त्व नहीं है और उसमें धर्म का प्रयोजन भी नहीं है। धर्म का प्रयोजन है मोक्ष और बंधन मुक्ति । नास्तिक के मन में न मोक्ष का प्रश्न है और न बंधन मुक्ति का इसलिए उसमें धर्म का प्रश्न भी नहीं हो सकता। जहां केवल इन्द्रिय प्रत्यक्ष का स्वीकार है वहां धर्म का आदि-बिंदु है ही नहीं । उसके लिए धर्म अर्थहीन है। जिन दार्शनिकों ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष से आगे प्रमाण माना, उन्होंने प्रत्यक्ष के साथ अनुमान को भी प्रमाण माना। अनुमान को प्रमाण मानने से दर्शन की धारा बहुत लम्बी बन जाती है । जो इन्द्रियों से जाना जाता है, अनुमान के द्वारा उसका भी बहुत विकास हो जाता है। अनुमान से बहुत सारे नियमों का अध्ययन किया जाता है, अनेक नियम बना लिए जाते हैं, व्याप्ति और संबंध की योजना की जाती है। उससे भी आगे एक प्रमाण है-आगम । आगम का मतलब है - इन्द्रियातीत प्रत्यक्ष का ज्ञान । जिसने इन्द्रियातीत ज्ञान से जाना, वह आगम बन गया । इन्द्रिय चेतना : चिन्तन का कोण ३७ दो धाराएं बहुत स्पष्ट हैं - एक इन्द्रिय ज्ञान की धारा और दूसरी इन्द्रियातीत ज्ञान की धारा । जो केवल इन्द्रियों के स्तर पर जीने वाले हैं, उनका चिन्तन एक प्रकार का होगा। उनके चिन्तन का उत्तराध्ययन में बहुत सुन्दर चित्रण मिलता है जे गिद्धा कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई । न मे दिट्ठे परे लोए, चक्खू दिट्ठा इमा रई ।। जो व्यक्ति इन्द्रियों की सीमा में जीता है, कामभोगों में आसक्त है, वह कोई ऐसा काम करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए और यदि कोई व्यक्ति उसे कहता है - भाई ! तुम कितना बुरा काम करते हो! इसका आगे क्या फल होगा? अगले जन्म में क्या मिलेगा? उसका उत्तर होता है-किसने परलोक देखा है? इतने लोग परलोक की बातें करने वाले हैं, क्या किसी ने परलोक देखा है ? और यह जो रति है, काम है, काम के विषय हैं, ये प्रत्यक्ष हैं। क्या प्रत्यक्ष को छोड़कर परोक्ष की बात करना मूर्खता नहीं है? क्या परोसे हुए भोजन को छोड़कर आने वाले की आशा करना उचित है? वह केवल इन्द्रिय भोगों के प्रति अपनी सारी आस्था केन्द्रित करेगा। उनसे परे भी कुछ है, इस पर उसका कोई चिंतन नहीं होता । यह चिन्तन अस्वाभाविक भी नहीं है। आदमी चौबीस घण्टा इन्द्रिय के संक्रमण से घिरा रहता है, उसका सारा चिन्तन इन्द्रियों की परिधि में सिमट जाता है । वह वर्तमान में, केवल वर्तमान में जीता है । न अतीत का प्रश्न, न भविष्य का प्रश्न । जो सामने है, वही सब कुछ है । प्रसंग जंबूकुमार का जंबूकुमार दीक्षा के लिए प्रस्तुत था और उसकी नवविवाहिता पत्नियां अदीक्षा के लिए । जंबूकुमार की एक पत्नी ने कहा- पतिदेव ! आप दीक्षित होना For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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