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स्वतन्त्रता की सीमा
है। जिस व्यक्ति ने दीर्घश्वास का प्रयोग किया है, उसमें वासनात्मक छन्द को रोकने की शक्ति उद्भूत हुई है।
प्रश्न है आस्था का। प्रयोग या अभ्यास के प्रति आस्था का होना आवश्यक है। प्रयोग के साथ आन्तरिकता नहीं जुड़ेगी, उसे हृदय से स्वीकारा नहीं जाएगा तब तक परिवर्तन की बात संभव नहीं बनेगी। प्रयोग का मूल्य क्या है? वह क्यों किया जा रहा है? उसका क्या उपयोग है? उसके द्वारा छंद पर नियंत्रण पाया जा सकता है, छन्द का निरोध किया जा सकता है। जब तक यह
आस्था गहरी और प्रबल नहीं जागेगी तब तक इसका पूरा उपयोग नहीं हो सकेगा। कुछ लोगों में आस्था सहज नहीं होती किन्तु उसे पैदा किया जा सकता है, किया जाता है।
मेवाड़ यात्रा का प्रसंग है। आचार्यश्री विहार कर रहे थे, एक गांव से दूसरे गांव जा रहे थे। गांव से बाहर आते ही आचार्यश्री एक दिशा से हटकर दूसरी दिशा में चलने लगे। मैं भी उसी दिशा में मुड़ गया। आचार्यश्री कुछ दूर चल कर पुनः उसी दिशा में पधार गए। मेरे मन में प्रश्न उभरा-आचार्यवर ने दिशा क्यों बदली? मेरे इस प्रश्न को पढ़ कर आचार्यवर ने कहा-उधर एक दुमुंही (सर्प की एक जाति) पड़ी थी। सकुन लेने के लिए उस दिशा से होकर आए हैं।
कहा गया—सकुन लीजै डायकै। यदि सहज सकुन नहीं मिलता है तो उसे उड़ाकर भी लिया जा सकता है। यदि अभ्यास में आस्था नहीं जग रही है तो उसे जगाना चाहिए। जब प्रयोग एवं अभ्यास के प्रति आस्था जागेगी, दीर्घश्वास का प्रयोग सधने लगेगा, छंद-निरोध का अर्थ भी स्पष्ट समझ में आएगा, मोक्ष का अर्थ भी प्रस्तुत हो जाएगा।
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