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महावीर का पुनर्जन्म
उपलब्धियां! कुछ भी नहीं मिला। गुरु की कृपा ही नहीं मिली। साधक इस चिन्तन में भटक जाता है, पथच्युत हो जाता है, प्राप्त संपदा को गंवा देता है। यह परीषह बहुत भयंकर है। सारे परीषह इसके नीचे दब जाते हैं। अज्ञान का परीषह भी साधना में बाधा बनता है। एक साधक सोचता है-वह मुनि बड़ा ज्ञानी है, बात को जल्दी पकड़ लेता है, याद कर लेता है और मैं इतना प्रयत्न करता हूं फिर भी बात पकड़ में नहीं आती। उसका मन अशान्त और उद्विग्न बन जाता है। यह कोई जरूरी नहीं है कि सबकी स्मृति एक समान हो। आदर्श की स्पष्टता : क्षमता का विकास
एक मुनि की स्मृति बहुत कमजोर थी। वह आगम पढ़ने की स्थिति में नहीं था। गुरु ने कहा-'मा रुष मा तुष' इस एक पद्य को याद कर इसका निरन्तर चिन्तन करो। शिष्य ने इस पद्य को कंठस्थ करना प्रारंभ किया। उसने इसकी साधना के लिए दूसरे स्थान पर जाने का निश्चय किया। वह थोड़ी दूर जाते ही इस पद्य को भी भूल गया। उसने सोचा-बड़ी मुसीबत हो गई। अब कैसे होगा? वापस जाऊंगा तो गुरु क्या समझेंगे। वह वापस नहीं आया, आगे चल पड़ा। उसने मार्ग में देखा-एक खलिहान है। उसमें धान साफ किया जा रहा है। उसने पूछा-यह क्या है? वे बोले–यह मास है और यह तुष है। उसने कहा-अच्छा! गुरु ने मुझे यहीं बताया था। उसने रटना शुरू कर दिया-मास तुष ... मास तुष। उसकी स्मृति कमजोर थी किन्तु अन्तःकरण बहुत पवित्र था। उसने सोचा-यह शरीर, जो तुष है, वह अलग है और यह मास-अनाज, जो आत्मा है वह अलग है। ऐसा करते-करते वह भेदज्ञान की स्थिति में पंहुच गया।
जब व्यक्ति के सामने आदर्श और लक्ष्य स्पष्ट होता है, साधना में आने वाली बाधाएं, विघ्न कमजोर बन जाते हैं। आदर्श की स्पष्टता से क्षमता का विकास संभव बनता है। जब व्यक्ति की क्षमता विकसित होती है, तब वह कष्टानुभूति के क्षणों में भी सुख और आनन्द को खोज लेता है और यही रहस्य परीषहों में अन्तर्गर्भित है।
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