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________________ १६६ महावीर का पुनर्जन्म है । आचार्य भिक्षु ने कहा – कोई किसी को बदल नहीं सकता। जब तक व्यक्ति का हृदय नहीं बदलता, परिवर्तन का होना संभव ही नहीं है । परिवर्तन का पहला सूत्र है - हृदय परिवर्तन, अभीप्सा का जाग जाना । व्यक्ति के मन में यह अभीप्सा जाग जाए कि मुझे बदलना है । यह अभीप्सा की जागृति परिवर्तन का पहला आधार सूत्र है । परिवर्तन का दूसरा हेतु है-अन्वेषण । जब अभीप्सा तीव्र बनती है, तब व्यक्ति अन्वेषण करता है । वह खोज करता है - कैसे बदलूं? बदलने का मार्ग क्या है ? हम आध्यात्मिक साहित्य को देखें । व्यक्ति गुरु की खोज में कहां-कहां गया है? कितने-कितने कष्ट सहे हैं? अन्वेषण शुरू होता है, आदमी भटकता रहता है, खोज चलती रहती है तो गुरु उपलब्ध हो जाता है। आचार्य भिक्षु ने भी अन्वेषण कम नहीं किया था। उन्होंने अन्वेषण किया, करते रहे और सत्य को उपलब्ध हो गए। तीसरा हेतु है— मार्ग का उपलब्ध होना । जो खोजता है, उसे मार्ग मिल जाता है। जिसने खोजा है, उसने पाया है। जब मार्ग मिलता है, तब कोई सहायक भी मिल जाता है, गुरु भी मिल जाता है। सहायक वह हो, जिसकी मेधा सूक्ष्म हो, जो सूक्ष्म अर्थ को जानने वाला हो। ऐसे गुरु या सहायक की उपलब्धि परिवर्तन का चौथा हेतु है । परिवर्तन का पांचवा हेतु है— भावना । भावना का अर्थ कोरा रटना नहीं है । सोचना, चिन्तन करना, पुनः पुनः आवृत्ति करना, यह है भावना। यह परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण हेतु है । परिवर्तन का छठा हेतु है- दृढ़ निश्चय । व्यक्ति में यह निश्चय जागे - मुझे बदलना है । यह चेतना जाग जाये -- करूंगा या मरूंगा । बुद्ध ने निश्चय किया - जब तक बोधि नहीं मिलेगी, इस आसन से नहीं उदूंगा, चाहे शरीर सूख जाए। ऐसा दृढ़ निश्चय पैदा होता है, तब परिवर्तन घटित होता है । बदलाव कब ? प्रायः एक प्रश्न पूछा जाता है--व्यक्ति बदलता क्यों नहीं? अमुक आदमी में परिवर्तन क्यों नहीं आया? कल जिसने परिवर्तन का प्रयोग शुरू किया, वह आज कैसे बदल जाएगा? बदलना एक प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया से गुजरने पर ही बदलाव संभव बनता है। बदलना कोई सहज घटना नहीं । बौद्धिक विकास करना उतना जटिल नहीं है, जितना जटिल है बदलना। एक व्यक्ति बौद्धिक विकास बहुत कर सकता है, पर हृदय परिवर्तन नहीं कर पाता। सबसे कठिन काम है हृदय परिवर्तन करना । परिवर्तन की अनिवार्य शर्त है— गहरी प्यास जगे । शिष्य ने गुरु से प्रार्थना की- 'गुरुदेव ! मैं साधना करना चाहता हूं, आप कोई मार्ग बताएं ।' गुरु शिष्य को साथ ले तालाब पर आया। दोनों तालाब के अन्दर उतरे। गुरु शिष्य को तालाब में डुबोने लगा । शिष्य चिल्लाया- 'गुरुदेव ! मैं डूब रहा हूं!' गुरु ने उसका नाक व मुंह बन्द कर दिया । वह छटपटाने लगा। कुछ क्षण बाद गुरु ने शिष्य को पानी से बाहर निकाला। शिष्य बोला- 'गुरुदेव ! मैं आया था साधना का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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