SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं निरपराध को दंड मिलता है कब बनता है दंड प्रभावी? प्लेटो ने दंड के लिए दो बातें कही-एक वैधानिक कर्तव्य और दूसरा नैतिक कर्त्तव्य । जब तक आदमी वैधानिक कर्त्तव्य को ही प्रमुखता देगा, समाज में न्याय नहीं होगा। नैतिक कर्तव्य को मुख्यता दिए बिना समाज में न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि न्याय नहीं है तो अपराध की रोकथाम भी संभव नहीं है और अपराध विद्यमान है तो दंड की अन्तहीन परंपरा चलती रहेगी। मार्कस ओरेलियस ने एक अधिकारी की नियुक्ति की। अपने हाथ से उसे तलवार देकर कहा-'देखो! अपनी रक्षा के लिए मैं तुम्हें नियुक्त कर रहा हूं। जब तक मैं न्याय का आचरण करूं, तब तक तुम इस तलवार से मेरी रक्षा करो और जिस दिन मैं न्याय का अतिक्रमण करूं, उस दिन इस तलवार से मेरा गला काट देना।' उन्होंने कहा-'मेरा कर्त्तव्य है रोमन के नागरिकों को सुखी बनाए रखना। जब तक मैं इस कर्त्तव्य का पालन करूं, यह तलवार मेरी रक्षा करती रहे। जब मैं कर्त्तव्य से विमुख हो जाऊं, यह तलवार तुम्हारे द्वारा मेरी गर्दन पर आ जाए।' जब तक यह न्याय ही निष्ठा और नैतिक कर्त्तव्य की निष्ठा मनुष्य में बनी रहती है, दंड प्रभावी नहीं होता। वह केवल आचार-संहिता में ग्रथित रहता है। दंड तभी प्रभावी बनता है जब न्याय कमजोर बनता है। न्याय की परिभाषा समाज व्यवस्था, न्याय, नैतिक कर्त्तव्य और दंड व्यवस्था—ये चारों अपराध की रोकथाम में उपयोगी बनते हैं। आज समाज की व्यवस्था राजनीति के हाथ में है, विधान सभा, लोकसभा और न्यायपालिका के हाथ में है, पुलिस और प्रशासन के हाथ में है। जनता के पास कुछ रहा ही नहीं। यह बड़ी विचित्र स्थिति है। समाज की इस वर्तमान व्यवस्था में अपराध न हो तो आश्चर्य है, हो तो कोई आश्चर्य नहीं लगता। पुराने समय में नैतिक चिन्तन बहुत ऊंचा था। भागवत में समाज व्यवस्था के संदर्भ में कहा गया यावद् ध्रियेत जठर, तावद् युक्तं हि देहिनाम् । अधिकं योऽभिमन्येत, स स्तेनो दण्डमर्हति ।। जितने धन से अपना पेट, उतने धन पर व्यक्ति का अपना अधिकार है। जो उससे अधिक धन का संग्रह करता है और उसे अपना मानता है, वह चोर है। उसे दंड मिलना चाहिए। उसे मृत्यु तक का अधिकारी भी माना गया। यह एक परिभाषा थी न्याय की। प्रश्न होता है-न्याय क्या है? बहत जटिल है न्याय की परिभाषा करना। न्याय के सन्दर्भ में सारे मानव समाज को एक भूमिका पर रखा गया। 'कोई भी व्यक्ति अभाव में न रहे' यह न्याय का आधार-सूत्र है। अभाव हो तो सबको हो और भाव हो तो सबके पास हो। इस आधार पर न्याय की सारी व्यवस्था की गई किन्तु आज इस अवधारणा में परिवर्तन आ गया। कानून के जाल में न्याय भी उलझ गया और व्यवस्था भी उलझ गई। अपराध और दण्ड को मुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy