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________________ मां के मुंह से बहिन के रूप में उस कन्या का परिचय पाकर दोनों राजकुमारों के सिर पर घड़ों पानी गिर गया। वे मन-ही-मन स्वयं को धिक्कारने लगे- हा ! बाहर वर्षों के अध्ययन के पश्चात भी हमारा जीवन सुसंस्कारी नहीं बना ! हमने इतने वर्षों तक केवल विद्या का भार ढोया ! मात्र अक्षर-ज्ञान पढ़ा ! जीवन कढ़ा नहीं ! “अनुताप की भावधारा में बहते हुए वे अपनी भूल का संशोधन करने के लिए चिंतन करने लगे । चिंतन करने में बहुत समय नहीं लगा। दोनों ने आजीवन विवाह न करने का संकल्प करते हुए अपनी भूल का प्रायश्चित्त किया, परिमार्जन किया । राजा-रानी को उनके संकल्प की अवगति हुई तो उन्होंने विचारपरिवर्तन के लिए उन पर काफी दबाव डाला, पर उन दोनों ने अपना मन तनिक भी कमजोर नहीं किया। वे अपने संकल्प पर अडोल बने रहे। मातापिता से अत्यंत विनम्रतापूर्वक उन्होंने निवेदन किया- ' बहिन को विकार - दृष्टि से देखकर हमने भयंकर पाप किया है। इस पाप का यही प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त स्वीकार किए बिना हमारी आत्मा पाप मुक्त नहीं हो सकेगी । ' विद्यार्थियो ! यह एक स्थिति का चित्रण है। प्राचीन समय में विद्यार्थियों के जीवन का स्तर कैसा था, इसका एक निदर्शन है। आज के विद्यार्थियों के जीवन स्तर से जब इसकी तुलना करता हूं, तब लगता है कि दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। कहां तो अनजान में बहिन को विकार - दृष्टि से देखने के प्रायश्चित्तस्वरूप आजीवन शादी न करने की बात और कहां आज लड़कों का लड़कियों के साथ खुला अभद्र और अश्लील व्यवहार ! और कुछ विद्यार्थी तो इससे भी आगे बढ़ जाते हैं। विद्यार्थियों का पतनोन्मुख जीवन देख मेरे मन में बहुत विचार आता है। मुझे लगता है कि विद्यार्थी विद्या- ग्रहण करने का वास्तविक लक्ष्य समझ नहीं रहे हैं। पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना विद्या का वास्तविक उद्देश्य नहीं है। वास्तविक उद्देश्य है - जीवन - निर्माण। जीवन-निर्माण के साथ बौद्धिक ज्ञान भी उपयोगी है, लेकिन कोरा बौद्धिक ज्ञान बहुत सार्थक नहीं होता। इसलिए अपेक्षा इस बात की है कि विद्यार्थी विद्यार्जन का वास्तविक उद्देश्य समझें और जीवन को सुसंस्कारों के सांचे में ढालने का प्रयत्न करें। जीवन-निर्माण के सूत्र सूत्र रूप में जीवन-निर्माण की कुछ बातें मैं बताना चाहता हूं। पहली बात है - कथनी करनी की समानता । यह बात किसी को छोटी या सामान्य आगे की सुधि ले ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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