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________________ स्वकथ्य साहित्य की अनेक विधाएं हैं। हर विधा अपने क्षेत्र में उपयोगी और महत्वपूर्ण होती है। उपयोगिता की दृष्टि से किन्हीं दो विधाओं की तुलना नहीं हो सकती । रुचि, अभिव्यक्ति, भाषा आदि के आधार पर भी साहित्य को अनेक भागों में विभक्त किया जा सकता है। कोई भी भाषा हो, समग्र साहित्य के दो रूप हैं- विद्वभोग्य और जनभोग्य | विद्वद्भोग्य साहित्य की भाषा, शैली और विषयवस्तु स्तर की होती है। उसे पढ़ने के लिए विकसित मस्तिष्क, एकाग्रता और अनुकूल पृष्ठभूमि की अपेक्षा रहती है। जनभोग्य साहित्य मां के दूध की तरह सबके काम में आनेवाला होता है। उस साहित्य का एक उत्स है-प्रवचन । प्रवचनकार प्रवचन करता है। उसके सामने जनता होती है। जनता में विद्वान और साधारण जन- दोनों प्रकार के व्यक्ति होते हैं। वे उस समय ऐसी बातें सुनना चाहते हैं, जो सुनने के साथ-साथ आत्मसात हो जाएं। उस समय पांडित्य के प्रदर्शन की अपेक्षा नहीं रहती । जनभाषा, जनजीवन के लिए उपयोगी बातें, जन समस्याएं एवं उनके समाधान, जनता की अपेक्षाएं और प्राथमिक रूप की तात्त्विक एवं सैद्धांतिक चर्चा - इन बिंदुओं को ध्यान में रखकर किया जानेवाला प्रवचन सहज रूप में जनभोग्य बन जाता है। उसमें कई बार पुनरुक्ति हो सकती है, पर भिन्न-भिन्न दृष्टियों से प्रतिपादित एक ही बात अपनी उपयोगिता के आगे प्रश्नचिह्न नहीं लगने देती । जैनविद्यामनीषी श्रावक श्रीचंदजी रामपुरिया प्रवचन - साहित्य का बहुत मूल्यांकन करते हैं। वे बहुत बार कहते हैं- ' आचार्यों के प्रवचन का एक भी वाक्य खोना नहीं चाहिए ।' श्रीचंदजी जैसे उच्चकोटि के विद्वान और अनुभवी व्यक्ति के मुंह से ऐसी बात सुनकर कभी - कभी मन में संकोच - -सा हो जाता है, पर यह निःसंकोच रूप से कहा जा सकता है Jain Education International सात For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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