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________________ सर्वथा गौण कर दें । तपस्या भी करणीय है। अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या करनी ही चाहिए। शक्ति का गोपन करना उचित नहीं है। हां, तो मैं आपसे नियति और पुरुषार्थ के संदर्भ में बता रहा था । हालांकि जैन दर्शन नियति को भी स्वीकार करके चलता है, पर उसका बल पुरुषार्थ पर है । पुरुषार्थ क्रिया है और नियति परिणाम । परिणाम हमारे हाथ में नहीं होता, उस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता, पर पुरुषार्थ हमारे हाथ में होता है। हम सही दिशा में पर्याप्त पुरुषार्थ करके सफलता अर्जित कर सकते हैं, अपनी लक्ष्य - संसिद्धि कर सकते हैं। यदि पर्याप्त पुरुषार्थ के बाद भी हमें सफलता नहीं मिलती है, लक्ष्य-संसिद्धि नहीं होती है तो हम ऐसा मान सकते हैं कि नियति ही ऐसी थी । यह भी इसलिए कि हमें निराशा न घेरे, पर यहां भी इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि सही दिशा में किया गया पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं होता। यह ठीक है कि आज हमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली, पर सत्पुरुषार्थ निश्चित रूप से हमारी विकास-यात्रा को आगे बढ़ाता है। कभी-न-कभी उसका सुपरिणाम हमारे सामने अवश्य आता है। परंतु जो व्यक्ति एकांततः नियति को ही यथार्थ मानता है, उसे कालांतर में निराशा घेर लेती है। वह हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाता है। उसकी कर्मजा शक्ति सुषुप्त पड़ी रहती है, कुंद हो जाती है। उस पर अकर्मण्यता प्रभावी हो जाती है। फलतः पुरुषार्थ-चेतना जाग नहीं पाती । फिर नियति को ही सब कुछ मानने के बाद वह तप, जप, ध्यान "करने की कोई अपेक्षा महसूस नहीं करता । सोचता है - जैसा नियति को मान्य होगा, वैसा हो जाएगा। इसका सीधा-सा फलित यह होता है कि व्यक्ति नियति के हाथ का एक यंत्र मात्र बनकर रह जाता है। स्वयं का स्वयं पर कोई नियंत्रण नहीं, कोई अधिकार नहीं । नियति उसे जैसे चलाना चाहे, जहां ले जाना चाहे, वह उसी के अनुरूप गति करता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी दुर्बलता और गलत आचरण की जिम्मेदारी भी स्वयं पर लेने की अपेक्षा महसूस नहीं करता; और जब अपेक्षा ही महसूस नहीं करता, तब उससे निवृत्त होने की दिशा में प्रयत्न भी नहीं कर सकता; लेकिन पुरुषार्थ को स्वीकार करने से यह स्थिति नहीं बनती। तब व्यक्ति अपनी हर अच्छी-बुरी प्रवृत्ति की जिम्मेदारी स्वयं ओढ़ता है। अपनी बुरी प्रवृत्ति का परिणाम जानता हुआ उससे उपरत होने की दिशा में प्रयत्न करता है, उपरत होता है। तप-संयम के कुल्हाड़े से अपने पूर्व - संचित कर्म काटता है । नियति और पुरुषार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only ४५० www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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