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मंदिर, मस्जिद या अन्य किसी धर्मस्थान से उसका कोई विरोध नहीं, पर वह व्यक्ति को धर्मस्थान में जाकर धार्मिक बनने से पहले आचार और व्यवहार से धार्मिक देखना चाहता है। वस्तुतः कौन व्यक्ति धर्मस्थान में जाकर कितनी पूजा-उपासना करता है, यह धार्मिकता की सही कसौटी नहीं है। सही कसौटी यह है कि वह लोगों के साथ कैसे पेश आता है। यदि उसके व्यवहार से लोगों को यह महसूस हो कि यह धार्मिक है तो वास्तव में वह धार्मिक है। इसके विपरीत उसके संपर्क में आनेवाले यदि उसके धार्मिक होने की साक्षी नहीं भरते हैं तो धर्मस्थान में पूजा-उपासना करने के बावजूद वह धार्मिक नहीं है। वैसे निश्चय में धर्म की कसौटी स्वयं की आत्मा है, पर व्यवहार में तो वे लोग ही हैं, जो व्यक्ति के संपर्क में रहते हैं। इस दृष्टि से अणुव्रत जीवन व्यवहार की शुद्धि पर सर्वाधिक बल देता है। मैंने एक पद्य कहा है
ग्रंथ- ग्रंथ में पढ़ी धर्म की सुंदरतम हर धर्मस्थल में भी जिसका मिला रूप धर्मशून्य धार्मिक का जीवन कैसा व्यंग्य
जाग्रत धर्म जीवित धर्म
हम कुरान, वेद, पिटक " "किसी धर्म-ग्रंथ को क्यों न पढ़ें, उसमें धर्म की सुंदर से सुंदर परिभाषा मिलती है, लेकिन धार्मिकों का जीवन उसके अनुकूल नहीं है, यह विधि का करारा व्यंग्य है। धर्म को आत्मगत करने के लिए व्यापारी अणुव्रत को समझें । यह आत्म- धर्म है, मानव-धर्म है । मैं चाहता हूं, हर व्यापारी प्रतिज्ञा करे कि मैं प्रामाणिक रहूंगा
• मैं तौल - माप में कमी-बेशी नहीं करूंगा।
परिभाषा ।
निखरा - सा ।
करारा!
हमारा ॥ हमारा ॥
• मैं सौदे के बीच में कुछ नहीं खाऊंगा ।
• मैं बेईमानी से मिलावट करके नहीं बेचूंगा ।
• मैं एक चीज दिखाकर दूसरी चीज नहीं दूंगा ।
• मैं नकली को असली बताकर नहीं बेचूंगा ।
• मैं कालाबाजारी नहीं करूंगा ।
मैंने आपसे कुछ बातें कही हैं। आप इन पर गंभीरता से चिंतनमनन करें। गंभीरता से चिंतन-मनन करने का अर्थ है कि आप धर्म में
आगे की सुधि ले
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