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सामने रख रहा है। जैन-धर्म वर्गविशेष में क्यों सिमटा
जैन-धर्म का दृष्टिकोण बहुत व्यापक है, फिर भी वह एक वर्गविशेष में सिमटा हुआ है। ऐसा क्यों? भगवान महावीर के समय उनके अनुयायियों में कृषक, शिल्पी, कर्मकर, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण सभी थे। प्रमुख श्रावकों का विवेचन जहां भी आता है, वहां कुंभकार, किसान आदि भी गिने जाते हैं। इससे जैन-धर्म के व्यापक दृष्टिकोण का पता चलता है।
भगवान महावीर के निर्वाण की कई शताब्दियों पश्चात जैन-धर्म पर बड़ी आपत्ति आई। परिणामतः धर्म का प्रचलन कठिन हो गया। तब एक ओसवाल वर्ग बनाया गया। ओसवाल कोई जाति नहीं थी, बल्कि जैनधर्म स्वीकार करनेवाले ओसवाल कहलाने लगे। फलतः अनेक वर्गों के लोग उस वर्ग में आए। इससे जैन-धर्म की तात्कालिक स्थितियों में कुछ सुविधा हुई होगी, पर यह बहुत स्पष्ट है कि वह दृष्टि जैन-धर्म का दायरे संकुचित करने में कारण अवश्य बनी। आज चाहने पर भी यह वर्गव्यवस्था मिटाने में कठिनाई हो रही है। दायरा व्यापक हो
आज अनेक अग्रवाल व सरावगी जैन हैं, पर बहुत अरसे तक इस बात की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। जब से हमने इस संदर्भ में कुछ सोचा-समझा, तब से एक भावना बन रही है कि जब तक धर्म एक कटघरे में बंद रहेगा, तब तक वह न तो स्वयं विकसित हो सकेगा और न अपनी बहुमूल्य सेवा से जनता को भी लाभान्वित कर सकेगा। इस दृष्टि से मैंने अपने साधु-साध्वियों से कहा-'अपना दायरा व्यापक करो। ओसवाल, अग्रवाल, महाजन, हरिजन कोई कौम क्यों न हो, कोई वर्ग क्यों न हो, वह धर्म से वंचित न रहे। यदि कोई धार्मिक बनना चाहे, तो उसे पूरा सहयोग मिले।'
पर आप जानते हैं कि दृष्किोण बनना एक बात है और सफलता प्राप्त होना दूसरी बात। सफलता के लिए वर्षों तक खपना पड़ता है। कई बार तो शताब्दियां बीत जाती हैं, तथापि फल सामने नहीं आता। हमने एक दृष्टिकोण बनाया और उसका कुछ-कुछ नतीजा सामने भी आने लगा है। पहले जो संकोच था, वह अब मिट रहा है। निकट संपर्क से भ्रांतियां
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- आगे की सुधि लेइ
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