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________________ रह जाती है और अंततोगत्वा अयोग अवस्था (चौदहवां गुणस्थान) में बंध होता ही नहीं। इस प्रकार समग्र शुभ-अशुभ कर्मों की निर्जरा हो जाने पर आत्मा मुक्त हो जाती है। देखें-निर्जरा, गुणस्थान। घाती कर्म केवल पापरूप हैं; अघाती कर्म शुभरूप होने पर पुण्य तथा अशुभरूप होने पर पाप हैं। इस अपेक्षा से पुण्य आत्मा के लिए उतने हानिकारक नहीं हैं, जितने कि घाती कर्म हैं। देखें-अघाती कर्म। उपचार से सत्प्रवृत्ति को भी पुण्य कहा गया है। अन्न, पान आदि उसके नौ प्रकार बताए गए हैं। पुद्गल-जो द्रव्य स्पर्श, रस, गंध और वर्णयुक्त होता है, वह पुद्गल है। लोक के सभी मूर्त/दृश्य पदार्थ पुद्गल ही हैं। सामान्य भाषा में उसे भौतिक तत्त्व या जड़ पदार्थ कहा जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी सभी प्रकार की भौतिक ऊर्जा एवं भौतिक पदार्थों का समावेश पुद्गल में होता है। पुद्गल परमाणु और स्कंध-दोनों रूप में होते हैं। पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति पूरणगलनधर्मत्वात् पुद्गलः की गई है। यानी जिसका गलनमिलन का स्वभाव है, वह पुद्गल है। पुद्गल को छोड़कर शेष द्रव्यों में इस गुण का अभाव होता है। पुद्गल की अनेक वर्गणाएं हैं, जो जीव द्वारा ग्रहण की जाती हैं। उनमें से कर्म-वर्गणा के पुद्गल महत्त्वपूर्ण हैं। प्रतिक्रमण स्वीकृत व्रतों का पर्यालोचन और उनमें लगे दोषों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। आवश्यक क्रिया, जो प्रत्येक साधु और श्रावक के लिए प्रतिदिन दो बार करणीय है, उसे भी प्रतिक्रमण कहा जाता है। हालांकि प्रतिक्रमण षड्आवश्यक में से मात्र चौथा आवश्यक है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए यह प्रतिदिन दो बार करणीय है, शेष तीर्थंकरों के साधु दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करते हैं। प्रदेश-पदार्थ का अविभाज्य अंश, जो उस पदार्थ के संलग्न होता है, प्रदेश कहलाता है। सभी अस्तिकायों के प्रदेश होते हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के असंख्य-असंख्य प्रदेश होते हैं। आकाशास्तिकाय के प्रदेश अनंत होते हैं। लोकाकाश असंख्यप्रदेशी तथा अलोकाकाश अनंतप्रदेशी है। पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनंत पारिभाषिक कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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