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________________ घटता है और दुःख वृद्धिंगत होता है। इसका कालमान दस कोटाकोटि अद्धा सागरोपम का होता है। इसके छह विभाग (अर) होते हैं- १. एकांत सुखमय २. सुखमय ३. सुख-दुःखमय ४. दुःख-सुखमय ५. दुःखमय ६. एकांत दुःखमय। देखें-उत्सर्पिणी। अवेदी-व्यक्ति की वह अवस्था, जिसमें वह वासनाजन्य विकार से मुक्त हो जाता है। यह स्थिति नवें गुणस्थान के उत्तरार्ध में प्राप्त होती है। वेद का अर्थ है-काम-वासना। तीनों वेद-स्त्री, पुरुष और नपुंसक समाप्त कर देने पर आत्मा अवेद बनती है। देखें-गुणस्थान। आगम-जैन-धर्म के मूल शास्त्र आगम कहलाते हैं। इनमें तीर्थंकर महावीर की वाणी के आधार पर गणधरों, ज्ञानी स्थविरों द्वारा गुंफित सूत्र-ग्रंथ समाविष्ट किए गए हैं। गणधरों द्वारा बनाए गए आगम 'अंग' तथा विशिष्ट ज्ञानियों द्वारा बनाए गए आगम ‘उपांग' आदि कहलाते हैं। देखें-अंग, गणधर, तीर्थंकर। श्वेतांबर-परंपरा में स्थानकवासी एवं तेरापंथ द्वारा बत्तीस आगम स्वीकृत हैं-ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद, एक आवश्यक। अन्य श्वेतांबर परंपराएं अड़तालीस या चौरासी आगम भी मानती हैं। आरा-कालचक्र के दो विभाग होते हैं-१. अवसर्पिणी (हासकाल) २. उत्सर्पिणी (विकासकाल)। अवसर्पिणी अथवा उत्सर्पिणी का एक कालखंड अर या आरा कहलाता है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में छह-छह अर या आरे होते हैं। देखें-अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी। आर्यक्षेत्र-मनुष्यक्षेत्र का वह हिस्सा, जहां लोगों का जीवन सुसभ्य और शिष्ट होता है तथा अर्हत द्वारा प्रदत्त उपदेश के श्रवण का लाभ प्राप्त करने की सुविधा होती है। देखें-अनार्यक्षेत्र । आश्रव-कर्म-आकर्षण के हेतुभूत आत्म-परिणामों को आश्रव कहते हैं। उसके पांच प्रकार हैं-१. मिथ्यात्व २. अविरति ३. प्रमाद ४. कषाय ५. योग। विस्तार में उसके बीस प्रकार भी बताए गए हैं। उत्सर्पिणी-विकास-काल-कालचक्र का वह अर्धांश, जिसमें क्रमशः दुःख घटता जाता है और सुख वृद्धिंगत होता जाता है। इसका कालमान दस कोटाकोटि अद्धा सागरोपम का होता है। इसके छह विभाग (अर) हैं पारिभाषिक कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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