SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी यह सोचता है कि मुझे आवश्यकतावश ऐसा करना पड़ रहा है। पेट पापी है।..... इसी प्रकार यदि किसी स्थिति में उसे झूठ बोलना पड़ता है तो उसके मन में ग्लानि का भाव पैदा हो जाता है। जैसाकि मैंने प्रवचन के प्रारंभ में कहा, हिंसा-अहिंसा का संबंध जीव के मरने और जीने से नहीं है। उसका संबंध है व्यक्ति की अपनी सतअसत वृत्तियों से। अविवेक की तरह जहां वृत्तियों में आसक्ति होती है, वह भी हिंसा है। आसक्ति जितनी कम होती है, पाप का बंधन उतना ही शिथिल होता है। इसके ठीक विपरीत आसक्ति जितनी गहरी होती है, बंधन उतना ही प्रगाढ़ होता है। __ आपने खंधक मुनि की घटना सुनी ही होगी। अपने पूर्वजन्म में उन्होंने छुरी से एक काचर छीलकर अत्यंत प्रसन्नता की अनुभूति की थी। इस कारण उन्होंने प्रगाढ़ कर्मों का बंधन कर लिया था। उस बंधन के परिणाम-स्वरूप उनके शरीर की सारी चमड़ी उतारी गई। राजा श्रेणिक का उदारहरण भी आप पढ़ते हैं। एक हरिणी को लक्ष्य कर उसने तीर छोड़ा। तीर हरिणी का पेट और उसके गर्भस्थ बच्चे को बींधता हुआ जमीन पर जा रुपा। अपने इस तीरदांजी कौशल पर राजा श्रेणिक अत्यंत प्रसन्न हुआ। हिंसात्मक प्रवृत्ति में इस आसक्ति के कारण ही उसे नरक प्राप्त हुआ। ऐसे और भी अनेक उदाहरण बताए जा सकते हैं। इन उदाहरणों से आप यह बात समझने का प्रयास करें कि आसक्ति का कर्मों के बंधन के साथ कितना गहरा संबंध है। यदि आपको प्रगाढ़ बंधन से बचना है, उसके कटु परिणाम से बचना है तो आप अपना विवेक जाग्रत करें, अपनी वृत्तियों में अनासक्ति का विकास करें। जितनी-जितनी अनासक्ति बढ़ती जाएगी, उतने-उतने आप प्रगाढ़ बंधन से भी बचते जाएगे। सत्संग का मूल्य बंधुओ! कर्म मैल की तरह है। बाहर का मैल भी अच्छा नहीं समझा जाता, फिर यह अंदर का मैल तो अच्छा हो ही कैसे सकता है? बाहर का मैल तो आप फिर भी साबुन से धोकर उतार लेते हैं, पर यह अंदर का मैल कैसे धोएंगे? अलबत्ता इसे धोने के कुछ उपाय हमारे तीर्थंकरों ने बताए हैं, उन्हें काम में लेकर आप अपना पूर्वसंचित कर्म-मैल धो सकते हैं। पर यह बाद की बात है। इससे पहले यह अपेक्षित है कि आप कर्मबंधन के प्रति सजग बनें। जब कर्म-बंधन के रूप में मैल होगा ही नहीं तो .२६८ - - -- आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy