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वीतराग बनना दीर्घकालीन साधनासापेक्ष है, पर आंशिक वीतरागता तो हम और आप आज भी प्राप्त कर सकते हैं। बस, अपेक्षा है कि गति लक्ष्योन्मुख हो जाए। ज्यों-ज्यों चरण उस दिशा में आगे बढ़ते जाएंगे, त्यों-त्यों वीतरागता सधती जाएगी।
यह बहुत स्पष्ट है कि पूर्ण वीतरागता के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए व्यक्ति को एक लंबा मार्ग तय करना पड़ता है। इस शिखर तक पहुंचने के लिए एक ऊंची चढ़ाई चढ़नी होती है, और इस यात्रा में उसे अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं का सामना करना होता है। लेकिन जो महान होता है, वह उनकी परवाह नहीं करता। राजर्षि भर्तृहरि ने लिखा है
क्वचिद् भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यंकशयनं, क्वचिच्छाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः। । क्वचित् कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो,
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्॥
हमारी यह चाह नहीं है कि जीवन में केवल दुःख ही आएं, पर किसी कारण जो दुःख आ जाते हैं, उन्हें समभावपूर्वक सहना हमारा आत्म-धर्म है। ज्यों-ज्यों यह आत्म-धर्म पुष्ट होता चला जाएगा, हम अपने लक्ष्य के नजदीक पहुंचते जाएंगे। धर्म का क्षेत्र
धर्म की चर्चा आ ही गई तो एक-दो बातें इस संदर्भ में कह देना चाहता हूं। मैं बहुत बार देखता हूं कि दो व्यक्ति अपने-अपने विचारों पर डटे रहते हैं और एक-दूसरे को असत्य साबित करने की कोशिश करते हैं। यह अच्छी बात नहीं है। जैसे को तैसा का सिद्धांत राजनीति में मान्य हो सकता है, पर धर्मनीति में इसका कोई महत्त्व नहीं है। धर्म-क्षेत्र में वितंडा करने से धर्म का नुकसान होता है। फिर धर्म का क्षेत्र तो मैत्री का क्षेत्र है। उसके लिए संघर्ष करना, कहां तक उचित और शोभनीय है, यह आप स्वयं समझ सकते हैं। मैंने एक गीत में कहा है
धर्म नाम से शोषण करते। धर्म नाम से निज घर भरते। धर्म नाम से लड़ते-भिड़ते। ये सब धर्म कलंक विचारा॥
अमर रहेगा धर्म हमारा॥ वस्तुतः धर्म में कोई संघर्ष है ही नहीं। धर्म हर स्थिति में व्यक्ति को
अनेकांत और वीतरागता
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