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विवेक चेतना जाग्रत हो
मूलभूत बात है विवेक की। जब तक व्यक्ति का विवेक जाग्रत नहीं होता, तब तक बुराइयां उसके जीवन में घर करती रहती हैं, उसे घेरे रहती हैं। जिस दिन विवेक जाग्रत हो जाता है, उस दिन उन्हें टिकने के लिए फिर कोई अवकाश नहीं रहता। साधु-संतों का सबसे बड़ा उपकार यही तो होता है कि वे अपने संपर्क में आनेवाले व्यक्ति-व्यक्ति की विवेक-चेतना झंकृत करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रयत्न में जिसकी यह चेतना झंकृत हो जाती है, उसका जीवन स्वस्थ बन जाता है। उसके जीवन में व्याप्त सारी बुराइयां स्वतः किनारा ले लेती हैं।
संन्यासी के पास एक युवक आया और नमस्कार करके बोला'महात्माजी! मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूं। क्या आप मुझे स्वीकार करेंगे?' संन्यासी ने कहा-'तुम्हारी यदि भावना है तो स्वीकार क्यों नहीं करूंगा? अवश्य करूंगा।' युवक बोला-'पर.......' संन्यासी ने पूछा-'पर क्या?' युवक बोला-'महात्माजी! मुझमें एक बुरी लत है कि मैं शराब पीता हूं।' संन्यासी ने कहा-'यह कोई चिंता का कारण नहीं है। सब ठीक हो जाएगा।' युवक बोला-'कभी-कभी जुआ भी खेलता हूं।' संन्यासी ने कहा-'कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा।' तीसरी बार युवक बोला-'मैं व्यभिचारी भी हूं।' संन्यासी ने फिर भी उसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं जताई। इस क्रम में उस युवक ने एक-एक करके अपनी लगभग सभी बुराइयों का जिक्र संन्यासी के समक्ष कर दिया। साथ-ही-साथ उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैं इन्हें छोड़ने की स्थिति में नहीं हूं, पर संन्यासी के मन पर कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसने हर स्थिति में उसे - अपना शिष्यत्व प्रदान करने की तैयारी दिखाई। युवक के लिए यह एक
अजूबा था। उसने संन्यासी से कहा-'महात्माजी! मैंने अपनी सारी स्थिति इसलिए निवेदित की है, ताकि आपको किसी प्रकार का धोखा न हो।' संन्यासी ने कहा-'धोखे की कोई बात नहीं है। मैं सारी बात अच्छी तरह से समझता हूं। मुझे हर स्थिति में तुम स्वीकार हो, पर क्या मेरी एक बात तुम भी स्वीकार करोगे?' युवक बोला-'महात्माजी! जब मेरी इतनी बुराइयों से परिचित होने के बावजूद आपने मुझे शिष्य बनाना मंजूर किया है, तब मैं आपकी बात कैसे नहीं मानूंगा? अवश्य मानूंगा।'
संन्यासी ने युवक को अपना शिष्य बना लिया और प्रथम निर्देश देते
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- आगे की सुधि लेइ
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