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गांव तो यह अपना ही है। वह देखें, सामने गांव का चौपाल है। इधर वह स्कूल है, जहां अपना बच्चा पढ़ता है।.......
नाविक ने गौर से देखा तो उसे पत्नी की बात यथार्थ नजर आई। इसके साथ ही उसका गुस्सा विस्मय और उलझन में ढल गया-यह कैसे हुआ! हमने नींद में नहीं, जाग्रत अवस्था में नौका खेई थी, पूरी रात खेई थी। इसके बावजूद हम गांव के नदी-तट पर ही खड़े हैं!
तभी उसके एक साथी की नजर लंगर पर पड़ी और वह बोल पड़ा-'पूरी रात नौका खेई तो क्या हुआ, नौका तो लंगर के बंधी पड़ी है। तब हम आगे कैसे बढ़ते? कल हमने शराब कुछ ज्यादा ही पी ली थी। उसके नशे में हमें लंगर से नौका खोलने की बात याद ही नहीं आई। बिना लंगर खोले पूरी रात नौका खेकर भी हम वहीं-के-वहीं खड़े हैं। हमारा सारा श्रम व्यर्थ चला गया।'
बंधुओ! अब आप समझ ही गए होंगे कि गलत दृष्टिकोण के लंगर से जीवन-नौका खोलना कितना आवश्यक है। जहां गलत दृष्टिकोण जीवन का अभिशाप है, वहीं सम्यक दृष्टिकोण जीवन का वरदान है। एक अपेक्षा से ये दोनों बातें एक ही हैं, दो हैं ही नहीं। सम्यक दृष्टिकोण की अप्राप्ति का नाम ही मिथ्या दृष्टिकोण है तथा मिथ्या दृष्टिकोण से मुक्त होने का नाम ही सम्यक दृष्टिकोण है। शांतिमय जीवन का सूत्र
आत्मदर्शी बनने की बात मैंने प्रारंभ में कही। सम्यग्दृष्टि की यह बहुत बड़ी पहचान है। शांति से जीने का यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सूत्र है। वैसे आत्म-निरीक्षण का यह सूत्र प्रकारांतर से गीता, बाइबिल, गुरुग्रंथसाहिब आदि विभिन्न धर्म-ग्रंथों में प्राप्त होता हैं। पर प्रश्न प्राप्त होने या न होने का नहीं है। प्रश्न यह है कि वह आत्मसात होता है या नहीं। यदि आत्मसात नहीं होता है तो उससे व्यक्ति को अभीप्सित प्राप्त नहीं हो सकता, शांति का अनुभव नहीं हो सकता।
जैसाकि मैंने प्रारंभ में कहा, धर्म व्यक्ति को आत्म-दर्शन की अभिप्रेरणा देता है। इस एक बात से ही आप धर्म का मूल्य समझ सकते हैं। अहिंसा और सत्य उसके ही दो रूप हैं। धर्म को जीवन में अपनाने का अर्थ है-सत्य और अहिंसा को स्वीकार करना। मेरी दृष्टि में ये दोनों इतने व्यापक तत्त्व हैं कि धर्म के छोटे-बड़े समग्र सिद्धांत इनमें समाविष्ट हो जाते
आत्मदर्शन : जीवन का वरदान
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