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मैंने लगभग दस उपन्यासों का हिन्दी रूपान्तरण किया है। किसी का एक और किसी-किसी के दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। लोगों की रुचि और उपन्यासों के प्रति बढ़ते रुझान को देखकर लगा कि इनका शीघ्र
प्रकाशन हो जाना चाहिए था । किन्तु समय उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । चिरकाल तक वे लोगों की भावनाओं को पूरा नहीं कर सके। समय का परिपाक हुआ। एक दिन मुनि जितेन्द्र कुमार ने आचार्यश्री महाप्रज्ञ से उपन्यासों के विषय में बातचीत की। आचार्यप्रवर के इंगितानुसार जैन विश्वभारती ने इनके प्रकाशन का दायित्व लिया। अब वे सभी उपन्यास उस समयावधि को पूरा कर लोगों की रुचि और उनकी उत्सुकता को तृप्त और शान्त करेंगे, ऐसी कामना है।
कार्य की निष्पत्ति में अकेले दो हाथ ही काम में नहीं आते, अनेक हाथों का सहयोग मिलता है, तभी कार्य सुन्दर और शीघ्र निष्पन्न होता है। मेरी सेवा में अहर्निश रत रहने वाले मुनिद्वय -मुनि राजेन्द्र कुमारजी और मुनि जितेन्द्र कुमारजी की इस कार्य में सतत सहभागिता रही। इसके लिए दोनों मुनि धन्यवादार्ह हैं।
आचार्य तुलसी के प्रति मैं अनन्य श्रद्धा से अभिभूत हूं। उन्होंने मुझे दीक्षा देकर और चहुंमुखी विकास के नए आयाम देकर आगे बढ़ाया। वे श्लाघापुरुष मेरे नयनों में आज भी साक्षात् बसे हुए हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ के पास मैं छह दशक से अधिक समय तक रहा। वे मेरे जीवन-निर्माता, संरक्षक और वत्सलता की प्रतिमूर्ति थे । उनका अकस्मात् इस संसार से जाना बहुत अखरा । काश ! इन उपन्यासों का लोकार्पण उनके हाथों होता ।
वर्तमान में आचार्य महाश्रमण के प्रति अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करता हुआ उनके चरणों में श्रद्धा-प्रणत हूं।
सुधी पाठक प्रस्तुत उपन्यास से अपनी दिशा और दशा को बदलकर जीवन को रूपान्तरित कर सकेंगे, इसी मंगलभावना के साथ......
आगममनीषी मुनि दुलहराज
सरदारशहर (चूरू) १६ जुलाई, २०१०
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