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५४. मंगल प्रयाण
चातुर्मास पूर्ण हुआ। मुनि ने परम उपकारी कोशा से विदा लेकर प्रस्थान कर दिया।
मुनि को पहुंचाने कोशा और भवन के सदस्य गंगातट तक गए। मुनि ने विदाई संदेश दिया।
कोशा ने वन्दना की। अन्य लोगों ने मुनि को अश्रुपूर्ण नेत्रों से वन्दना
की।
मुनि चले गए।
जब आए थे तो मन में एक क्षुद्र ईर्ष्या थी, मन में पाप भर गया था और जब गए तो मन निर्मल हो गया था।
तपस्वी और ज्ञानी कभी मार्ग-च्युत नहीं होते और यदि कारणवश या कर्मवश पथच्युत हो जाते हैं तो सचेत होते ही पुन: मार्ग पर आरूढ़ हो जाते हैं।'
कुछ दिन बीते।
एक दिन कोशा ने सोचा-चित्रलेखा अब अपने पूर्ण यौवन में आ गयी है। वह नृत्य में पारंगत हो चुकी है। अब मुझे इस वैभव और उपाधियों के मध्य क्यों जीना चाहिए?
यह प्रश्न मन-ही-मन में घुल रहा था। उत्तर की प्रतीक्षा में कुछ दिन बीत गए।
एक दिन चित्रलेखा नृत्य का अभ्यास कर कोशा के पास आयी, तब कोशा ने कहा- 'बहन, मैंने तुझे सारी कलाएं सिखा दी हैं, बस एक वस्तु शेष है...यदि तेरी इच्छा हो तो वह भी तुझे अर्पित कर दूं?' आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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