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________________ 'मुनिवर, आप इतने व्याकुल क्यों हो रहे हैं? आपके श्रम पर मैंने पूरा विचार किया है। रत्नकम्बल एक सामान्य वस्तु है। आज नहीं तो कल यह जीर्ण-शीर्ण होकर नष्ट हो जाएगा। किन्तु पन्द्रह-पन्द्रह वर्षों तक तप और संयम की उद्दाम साधना कर आपने जो बहुमूल्य रत्न प्राप्त किया है, क्या उसकी रक्षा की आपको तनिक भी चिन्ता नहीं है? आप मुझे समझाएं कि दो महीने के श्रम से प्राप्त यह रत्नकम्बल अधिक मूल्यवान् है या पन्द्रह वर्षों के कठोर तप से प्राप्त यह चरित्र-रत्न अधिक मूल्यवान् है! श्रम की तुलना में किसका मूल्य अधिक है?' मुनि के हृदय पर अचानक वज्राघात-सा हुआ। क्या यह राजनर्तकी रूपकोशा है ? यह भारत की सर्वश्रेष्ठ नृत्यांगना है या कोई तत्त्वज्ञानी? मुनि विचारमग्न हो गए। उनकी आंखें भूमि में गड़ गयीं। रत्नकम्बल हाथ से छूटकर नीचे गिर पड़ा। कोशा ने विनम्र स्वरों में कहा- 'मुनिवर! आप मुझे क्षमा करें। मैंने ही आपके चातुर्मासिक व्रत को भंग करवाया है। किन्तु इसका भी एक उद्देश्य था। मैं आपको अध:पतन से बचाना चाहती थी। यदि मैं पहले कुछ भी समझाती तो आप नहीं समझते। अब आप स्वयं समझ रहे हैं। मुझे क्षमा करें।' 'मां, मेरा अपराध भूल जाना...आपने जो किया है, वह उचित ही है। ईर्ष्यावश मैं यहां आया था। यहां आकर मैं भूल ही गया कि मैं ज्ञातपुत्र के मुक्तिमार्ग का पथिक हूं और मार्गच्युत हो रहा हूं।' 'मुनिवर ! आप संयम में पुन: स्थिर हो गए। यह देखकर मुझे प्रसन्नता हो रही है। आप ईर्ष्यावश यहां आए इसका रहस्य मैं समझ नहीं पायी। कृपा कर आप स्पष्ट करें।' __ 'देवी! जब मुनि स्थूलभद्र ने यहां चातुर्मास सम्पन्न कर गुरु के दर्शन किए तब गुरु ने उन्हें तीन बार साधुवाद दिया और दुष्कर....दुष्कर.... अति-दुष्कर कहा। हमने इससे पूर्व अनेक भयंकर स्थानों में घोर तप करते हुए चातुर्मास किए थे। गुरु ने हमें केवल धन्यवाद ही दिया था। आर्य स्थूलभद्र और कोशा २८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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