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४०. व्यथित हृदय
दो दिन बीत गए । कोशा की मूर्छा नहीं टूटी। स्थूलभद्र के संसार-त्याग की बात सारे नगर में वायु-वेग-सी फैल गई। कोशा के हृदय को भारी आघात लगा है, यह बात भी जन-जन के मुंह पर गई। श्रीयक भी भाभी की संभाल करने आ पहुंचा। सम्राट् ने राजवैद्य को भेजा। उपचार हुआ, पर मूर्छा नहीं टूटी।
छोटी बहन चित्रलेखा रातभर रोती रही। भवन के सारे दास-दासी रोते रहे।
ऐसा लग रहा था कि विश्व का करुण-दृश्य उस विलास भवन में पिंडीभूत हो गया हो।
दूसरे दिन मध्यरात्रि के समय राजवैद्य की एक पुड़िया से चमत्कार हुआ। कोशा ने मृदु-कंपित स्वर में कहा- 'नाथ! मुझे छोड़कर मत जाना....मत जाना।'
कोशा की बेहोशी टूटी है, यह जानकर भवन के लोग कुछ प्रसन्न हुए। चित्रलेखा ने कोशा के सिर को सहलाते हुए कहा- 'बहन....!'
कोशा ने आंखें खोलीं। चारों ओर देखा। सभी परिचारकपरिचारिकाएं रो रहे थे। चित्रलेखा की आंखें रोने के कारण लाल हो चुकी थीं। वह धीरे-धीरे बोली-'चित्रा....!'
'देवी! अब कैसी हैं?' 'क्या हुआ, चित्रा....?'
चित्रा कुछ कहे, उससे पहले ही श्रीयक बोल उठा- 'देवी! तुम स्वस्थ हो जाओ, फिर विचार किया जाएगा।'
'कौन? श्रीयक भाई?'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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