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वासंती रंग वाला और मुक्तामंडित किनारी से शोभित उपवस्त्र को लेकर माधवी लौटी।
'वायु अत्यन्त स्निग्ध है'-युवती ने माधवी को देखकर कहा। माधवी के नयन हंस पड़े। इनके पीछे क्या रहस्य था? वह निकट आयी और रूपांगना के शरीर को उपवस्त्र से ढंक दिया।
नौका की गति नक्षत्रों की गति के समान हो गई। मंत्री के प्रासाद से प्रसृत वीणा का स्वर बहुत ही मृदु हो गया।
चित्रा आयी। नवयौवना ने पूछा- 'तूने कैसे जाना?'
'क्या, देवी?' अधूरे प्रश्न को नहीं समझते हुए चित्रा ने प्रश्नभरी दृष्टि से देवी को देखा।
'तू नहीं समझती। अरे माधवी, तूने शकडाल को देखा है ?' 'हां, देवी! अनेक बार।' 'चित्रा ! तूने भी?' 'महामंत्री को किसने नहीं देखा, देवी!' चित्रा ने कहा।
'तुझे नहीं लगता कि तेरी कल्पना केवल कल्पना ही है। युवती ने वेधक दृष्टि से चित्रा की ओर देखा।
'कौन-सी कल्पना, देवी? मैं तो.....'
नवयौवना ने मुसकराते हुए बीच में ही कहा, 'अरसिक महामंत्री के ज्येष्ठ पुत्र की....'
'नहीं देवी, मैंने यह सत्य कहा है। मुझे उद्दालक बता रहा था।' उद्दालक का नाम आतेही चित्रा के नयन लज्जा को छिपाने का प्रयत्न करने लगे।
'ओह! तेरा पागल उद्दालक ! किन्तु पाटलीपुत्र नगर का ऐसा कलाकार क्या मेरे से छिपा रह सकता है?'
'देवी ! महामंत्री के पुत्र की मर्यादा सामान्य नहीं है। वे बहुत ही लज्जालु हैं। उनका सारा समय अभ्यास और चिन्तन में ही बीतता है।' चित्रा ने कहा।
मदभरे नयनों को वक्र करती हुई रमणी बोली, 'एक लज्जालु युवक पाटलीपुत्र के युवकों मे प्रसिद्ध हो, यह भी आश्चर्य की ही बात है।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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