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'देवी!' चित्रा के मुख पर लज्जा की रेखाएं नाच उठीं ।
'क्या नहीं देखती - किसी की वीणा के स्वर गंगा के प्रवाह को भी स्तंभित कर रहे हैं - बेचारा चन्द्र भी बदली की ओट में छिप गया है।' चित्रा के कानों में वीणा के सुमधुर स्वर आ पड़े। वह अचानक उठी। 'चित्रा....!'
'जा रही हूँ, देवी!' कहकर चित्रा नौका - संचालक वत्सक की ओर गई। 'माधवी !' नवयौवना ने कुछ दूर बैठी एक परिचारिका को बुलाया । 'जी!' कहती हुई माधवी खड़ी हुई। उसके हाथ में फूलों से गुंथी हुई एक चादर थी।
'क्या कुछ समझ में आ रहा है ?'
'तिलक का मोद.......?'
'पागल कहीं की ! वीणा पर पुरुष का हाथ चल रहा है या स्त्री का ?' 'स्त्री के बिना इतनी मृदुता.....' माधवी अपना वाक्य पूरा करे उससे पहले ही चन्द्रानना हंस पड़ी ।
मृगलोचना ने हंसते हुए कहा, 'माधवी ! बंधन और मुक्ति की ऐसी आकर्षक स्वर-योजना स्त्री नहीं कर सकती। लगता है कि किसी अद्भुत कलाकार की अंगुलियां वीणा पर थिरक रही हैं।'
इतने में चित्रा आ गई। नौका की गति मंद हो गई। नवयौवना ने चित्रा की ओर देखकर प्रश्नभरी वाणी में कहा, 'यह किसका प्रासाद है, चित्रा ?'
'देवी! कौन - सा प्रासाद ?'
'हमारी नौका के सामने वाले तट पर कितने प्रासाद दिख रहे हैं ?' 'ओह ! यह तो महामंत्री शकडाल का प्रासाद है ।' चित्रा ने प्रासाद का संक्षिप्त परिचय दिया ।
'राज्य के गम्भीर कार्यों में रचे-पचे महामंत्री एक समर्थ वीणावादक हैं, यह तो आज ही ज्ञात हुआ है।' युवती ने मृदु हास्य बिखेरते हुए कहा । 'नहीं, देवी! वे नहीं हैं ।' चित्रा ने कहा ।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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