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________________ १६० ब्रह्महेमचंद्रविरचितः vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv जं जाणेइ सुदंतं विहुभुय बलि पुप्फयंतणामजई। धरण हु अवसाणे सुददेसधरा य विणि मुणी ॥ ८३ ॥ गुणजीवादिपरूवण खुल्लयसामित्तवंधणामाय । वेयसवग्गणखंडा छटो महबंधु जाणेह ॥ ८४ ॥ एवं छह अहियारा तीससहस्साणुसुत्तरेरहिया। अप्पमई होति णरा तो पुच्छय लेहिओ गंथो ॥ ८५॥ भूयबलिपुप्फयंतो चउविहसंघेण संजुदो तत्थ । जिटुसियपंचमिदिणे पुत्थयपडिठावणा विहिया ॥ ८६ ॥ अटुविहा कयपूया तद्दिणि सुयपंचमीदि संजादा । सुदविणएणं लब्भइ अचलंपि केवलं जाणं ॥ ८७ ॥ सदरीसहस्स धवलो जयधवलो सट्टिसहसबोधव्यो। महबंधो चालीसं सिद्धंततयं अहं वंदे ॥ ८८ ॥ रइओ तिलंगदेसे आरामे कुंडणयरिसुपसिद्धे। चंदप्पहजिणिमादरि रइया गाहा इमे विमला ॥ ८९ ॥ मयरद्धयमहमहणो मायामयमोहमयणपरिहरणो। चंदप्पहु जिणणाहो देउ सुहं सयलसंघस्त ॥ ९० ॥ जयउ जयसयवतो जयजयसद्देण असुरसुरणमिओ। चंदप्पहुजिणणाहो सुहपरिणामं महं देउ ॥९१ ॥ सिद्धंतिरामणंदी महापसाएग रयउ सुरवंधो। लइओ संसारफलो देसजई हेमयंदेण ॥ ९२ ॥ अक्खरमत्ताहीणं जं अत्थविवज्जियं मया भणियं । तं खमउ वीयराओ मम पुणु कम्मक्खयं होउ ॥ ९३ ॥ जो पढइ सुणइ गाहा अत्थे जाणेइ कुणइ सद्दहणं । आसण्णभव्वजीओ सो पावइ परमणिवाणं ॥ ९४ ॥ इतिश्रीब्रह्महेमचंद्रविरचितः श्रुतस्कंधः समाप्तः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003104
Book TitleTattvanushasanadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1919
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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