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घुक्त्यनुशासन का सर्वोदय तीर्थ
वादी । और कथंचित् अनेकांतवादी है। एकान्त और अनेकांत भी क्रमशः सम्यक् एवं मिथ्या दो प्रकार के होते हैं । निरपेक्ष नय मिथ्या एकान्त है और सापेक्ष नय सम्यक् एकान्त है, तथा सापेक्ष नयों का समूह (अर्थात् श्रुत प्रमाण) सम्यक् अनेकांत और निरपेक्ष नयों का समूह मिथ्या अनेकांत (अर्थात् प्रमाणाभास) है। कहा भी है
"जं वत्थु अगेयन्तं, एयंतं तं पि होदि सविशेषं । सुयणाणेण णएहि य, णिरवेक्खं दीसदे णैव ॥'
____ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा-२३१ राजवार्तिक (१/६) में अकलंक कहते हैं कि 'यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाय और एकान्त का सर्वथा लोप किया जाय तो सम्यक एकान्त के अभाव में, शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह, तत्समुदाय रूप अनेकांत का भी अभाव हो जायगा । अतः यदि एकान्त ही स्वीकार कर लिया जाये तो फिर अविनाभावी इतर धमों का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्व लोप का प्रसंग प्राप्त होगा।' सभ्यक एकांत नय है और सम्यक अनेकान्त प्रमाण । अनेकांतवाद सर्व-नयात्मक है। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक माला में पिरो देने से एक सुन्दर हार बन जाता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वाद् रूपी सुत में पिरो देने से सम्पूर्ण नय श्रुत प्रमाण कहे जाते हैं -- (स्याद्वाद मंजरी, श्लोक-३०) ।
परमागम के बीजस्वरूप अनेकांत में सम्पूर्ण नयों (सम्यक् एकांतों का विकास है। उसमें एकांतों के विरोध को समाप्त करने की सामर्थ्य है------
'परमागस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम्, सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
-पुरुषार्थ-सिट्युपाय (अमृतचन्द्र) संक्षेप में जैसे विभिन्न अन्धों को हाथी विभिन्न अपेक्षा से विभिन्न रूप में दिखाई पड़ते हैं, किन्तु अंश रूप से सत्य है, पूर्ण रूप से नहीं । अतः हम परस्पर विभिन्न विरोधी धर्मों का समन्वय बिठा सकते हैं। हां, यह ध्यान रखना चाहिये कि प्रत्येक वस्तु अनेक परस्पर विरोधी धर्म-युगलों का पिण्ड है तथापि बस्तु में सम्भाव्यमान परस्पर विरोधी धर्म ही पाये हैं, असम्भाव्य नहीं। अन्यथा आत्मा में नित्यत्व-अनित्यत्वादि के समान वेतनअचेतनत्व धर्मों की सम्मावना का प्रसंग आयेगा । (धवला १-१-१-११)
यह दुर्भाग्य है कि अनेकान्त और स्याद्वाद के निर्दोष एवं समन्वयकारी तत्त्व ज्ञान को भारतीय मनीषा के कुछ श्रेष्ठतम व्यक्तियों ने गलत समझ लिया । ब्रह्मसूत्र में "नैकस्मिन् संभवात्' (२/२/३३) का भाष्य करते हुए शंकराचार्य लिखते हैं कि 'एक वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का निवास असम्भव है।'' शंकराचार्य शायद यह भूल जाते हैं कि अपेक्षा भेद
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