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जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन
प्रकारान्तर से अनेकांत दृष्टि को स्वीकार किया है। जैसे माध्यत्मिक बौद्धों ने परमार्थ, लोकसंवृति और अलोकसंवृति तीन अवस्थायें मानी हैं। जिस शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के " नैकस्मिन् असंभवात् " सूत्र के भाष्य में अनेकान्तवाद स्याद्वाद पर प्रखर प्रहार किया है, वही स्वयं तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में परमार्थ, व्यवहार एवं प्रतिभास- सत्य की तीन अवस्थायें मानकर स्याद्वाद- दृष्टि का अधिक से अधिक प्रयोग करने वाला चितक सिद्ध हुआ । आधुनिक युग में आइन्स्टीन का सापेक्षवाद और डेलरेपी जैसे दार्शनिकों का द्वादशभंगी दृष्टिकोण हमारे सामने है । इस दृष्टि से जैनों की अनेकांत दृष्टि दर्शन की सबसे निर्दोष विधा है, जो किसी ऐकान्तिक दृष्टि - विशेष से आबद्ध नहीं है ।
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इस अनेकांतवाद की भूमिका साम्य दृष्टि में है । साम्य-दृष्टि का जैन परम्परा में वही महत्त्व है जो ब्राह्मण परम्परा में ब्रह्म का है । श्रमण धर्म की प्राणभूत साम्य भावना ( सामाइय - सामायिक) का प्रथम स्थान है जो आचारांग सूत्र कहलाता है और जिसमें भगवान् महावीर के आचारविचार का सीधा एवं स्पष्ट प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है । यह धार्मिक जीवन स्वीकार करने की गायत्री है । जब गृहस्थ या त्यागी कहता है" करेमि भंते सामाइयं ।" इसके दूसरे सूत्र में सावद्ययोग है जिसमें पाप व्यापार के त्याग का संकल्प है । यह साम्य दृष्टि विचार एवं आचार दोनों में प्रकट हुई है । विचार में साम्यदृष्टि से ही अनेकांतवाद का आविर्भाव हुआ । केवल अपनी दृष्टि को पूर्ण एवं अन्तिम सत्य मानकर उस पर आग्रह रखना साम्यदृष्टि के लिये घातक है । इसलिये यह माना गया है कि दूसरों की दृष्टि का उतना ही आदर करना चाहिये जितना अपनी दृष्टि का । यही साम्य दृष्टि अनेकांत की भूमिका है । इसी से भाषा प्रधान स्याद्वाद एवं विचारप्रधान नयवाद का कमश: विकास हुआ है । जैनेतर दार्शनिक भी अनेकांत भावना को स्वीकार करते हैं लेकिन जैन दर्शन की यही विशेषता है कि अनेकांत का स्वतंत्र शासन ही रच डाला । जैन दर्शन का बाह्य- आभ्यन्तर, स्थूल सूक्ष्म सब आचार साम्यदृष्टि मूलक अहिंसा के आस-पास ही निर्मित हुआ है। जिन आचार के द्वारा अहिंसा की रक्षा या पुष्टि न होती हो, ऐसे किसी भी आचार को जैन परम्परा मान्यता नहीं देती। इसलिये अहिंसा को यहां इतना व्यापक एव गम्भीर बताया गया । अहिंसा केवल मानव-धर्म के रूप में नहीं बल्कि मानवतेर यानी पशु-पक्षी, कीट-पतंग और वनस्पति तथा जैवीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों की हिंसा से आत्मौपम्य की भावना द्वारा निवृत्त होने के लिए कहा गया है ।
विचार जगत का अनेकांत ही नैतिक जगत् में अहिंसा को प्रतिष्ठित करता है । अत. जहां अन्य दर्शनों में दूसरों के मतों के खण्डन पर ज्यादा
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