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________________ आर्शीवचन "जैन-दर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन" नाम पुस्तक के प्रतिपाद्य विषय की स्वयं सूचना दे रहा है । जैन दर्शन भारतीय सीमा में विकसित हुआ इसलिए कहा जा सकता है---यह भारतीय दर्शन है। इसमें प्राणी जगत् और पौद्गलिक जगत् का सम्भवतः सर्वाधिक चिन्तन हुआ है। इस दृष्टि से इसे विश्व-दर्शन कहा जा सकता है। अनेकांत में विश्व-दर्शन की समस्त समस्याओं पर विचार किया गया है। उसका प्रतिनिधि वाक्य है : जावइया वयणपहा तावइया चेव हुँति नयवाया (सन्मति तर्क) किसी भी देश और किसी भी काल में किसी भी व्यक्ति के द्वारा किया गया विचार सत्यांश है, इस स्वीकृति ने अनेकांत को विश्व-दर्शन के सिंहासन पर आसीन किया है। मेरे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी सिद्धि होगी, इस अवधारणा को हास्यास्पद बताकर भगवान् महावीर ने सत्य को सम्प्रदाय से बहुत ऊंचा स्थान दिया है। स्वयं सत्य की खोज करो और सबके साथ मैत्री करो----इस सूत्र वाक्य ने दर्शन को वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया है। डॉ. रामजीसिंह अध्ययनशील और चिंतनशील व्यक्ति हैं । उन्होंने दर्शन और विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। प्रस्तुत पुस्तक उनके चिन्तन और वैज्ञानिक अध्ययन का स्वयं साक्ष्य है। द्वैत और अद्वैत की समस्या पर उन्होंने विस्तार से लिखा है । एकांत दृष्टि से द्वैत और अद्वैतदोनों की प्रतिष्ठा करना अभ्रांत नहीं हो सकता। अनेकांत दृष्टि से विचार करने पर यह प्रमाणित होता है कि सर्वथा द्वैत और सर्वथा अद्वैत के लिए कोई अवकाश नहीं है। अचेतन चेतन से सर्वथा भिन्न नहीं है और चेतन अचेतन से सर्वथा भिन्न नहीं है। उनमें सामान्य गुण अधिक हैं, विशेष गुण स्वल्प हैं । सामान्य गुण उनके अद्वैत को प्रतिष्ठित करते हैं और विशेष गुण उनके द्वैत की प्रतिष्ठा करते हैं । प्रस्तुत पुस्तक में प्रतिपाद्य विषयों का अनेकांत दृष्टि से मूल्यांकन करना नितांत अपेक्षित है। डॉ० रामजीसिंह ने जैन विद्वानों की कमी और जैन विद्वानों को तैयार करने की वेदना और योजना का जो प्रकल्प प्रस्तुत किया है, उस पर दार्शनिक जगत् को और विशेषतः जैन समाज को गम्भीर चिंतन करना चाहिए । उनका चिन्तन है-'यह शुभ लक्षण है कि सदियों के बाद जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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