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जैन विश्वभारती बनाम जैन विश्वभारती
"माता न कुमाता हो सकती।
हो पुत्र कुपुत्र भले कोई ।" जैन विश्वभारती मातृत्व की महत्तम अधिकारिणी है । इसलिये मातसंस्था के द्वारा विश्वविद्यालय के संविधान निर्माण के समय इस बात का पर्याप्त ध्यान रखा गया है कि विश्वविद्यालय के सभी निकायों में मातृ-संस्था की पर्याप्त छाया रहे । विश्वविद्यालय का संविधान तो ऐसा बनाया गया है कि विश्वविद्यालय के निकाय वस्तुतः सरकार एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोगों के अनिवार्य प्रतिनिधित्व को छोड़ वस्तुतः मातृ-संस्था के ही प्रतिनिधि हैं । विश्वविद्यालय के सर्वोच्च पदाधिकारी कुलाधिपति वस्तुतः मातृ-संस्था द्वारा ही अनुशास्ता के परामर्श से मनोनीत होंगे। विश्वविद्यालय के प्रधान कार्यकारी पदाधिकारी कुलपति के मनोनयन करने वाले चार सदस्यों में तीन तो मातृ-संस्था से ही सम्बद्ध हैं अतः कुलपति का मनोनयन भी मातृसंस्था के ही कुशल हाथों में है । शिष्ट परिषद् (सीनेट) हो या प्रबन्ध मंडल (सिंडीकेट), विद्या परिषद् (एकेडमिक काउन्सिल) या वित्त समिति, योजना समिति हो या चयन समिति सभी में मातृ-संस्था के प्रतिनिधियों का इतना प्रगल्भ वर्चस्व है कि उन्हें किसी प्रकार की दुशंका या दु:चिता के लिये गुंजाइश ही नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्वायत्तता नहीं होगी। स्वायत्तता के अभाव में विश्वविद्यालय निर्जीव एवं निस्तेज रहेगा । विश्वविद्यालय की शैशवावस्था में मातृ-संस्था की ममता ही इसकी सुरक्षा की सर्वोत्तम गारंटी है। आज तो वित्तीय संकट के कारण सभी विश्वविद्यालय दरिद्रता का दुःख भोग रहे हैं। ओवर ड्राफ्ट एवं बिलंबित भुगतान विश्वविद्यालयों में एक आम बात हो गयी है। इस सन्दर्भ में मातसंस्था द्वारा विश्वविद्यालय के सम्पूर्ण व्यय का दायित्व स्वीकार करना एक दुर्लभ सुयोग तो है ही, एक घोषित वरदान भी है। निर्माण एवं दैनंदिन के खर्चों की चिन्ता से रहित होकर ही आचार्य श्री तुलसी की यह आध्यात्मिक
और सारस्वत संतान उनके सपनों को साकार करने में समर्थ होगी। महान दार्शनिक डा. राधाकृष्णन ने अपने ग्रन्थ राज "भारतीय दर्शन" का प्रारंभ करते हुए प्रथम अविस्मरणीय पंक्ति में कहा ही था- "चिंतनशील मस्तिष्क के प्रस्फुटन, कला एवं विज्ञान के विकास की पहली शर्त है कि एक स्थायी समाज व्यवस्था हो जहां सुरक्षा और अवकाश का अवसर हो।" - असुरक्षा और अभाव के कारण जीवन-संग्राम की कठोरता से जूझते रहने पर सृजन भी सम्भव नहीं है। यही कारण था कि प्राचीन भारतीय आचार्यगण अपनी आजीविका की चिंता से मुक्त रहकर समाज को शिक्षा का दुर्लभ दान दिया करते थे । समाज उन्हें जीविका की चिंता से केवल मुक्त ही नहीं रखता था बल्कि उन्हें सर्वोच्च सम्मान भी दिया करता था। वेद ने कहा ही है—"ब्राह्मणो
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