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महावीर और गांधी
बापू ने विवाहित ब्रह्मचर्य के आदर्श को व्यवहार में लाकर जैनसमाज के आदर्शों को सार्थकता प्रदान की। प्राचीन काल में भगवान महावीर के समय में इस प्रकार की दम्पत्ति के ब्रह्मचर्य की कथा सुनते हैं लेकिन गांधी ने अपने जीवन में इसका प्रयोग कर धार्मिक चेतना को परिपुष्ट किया। गांधी के लिए ब्रह्मचर्य केवल आदर्श नहीं, विशुद्ध व्यवहार था । जीवन के अन्तिम समय में भी उन्होंने स्वयं अपने ऊपर ब्रह्मचर्य के प्रयोग किये और यह सिद्ध किया कि व्यक्ति कितनी ऊंचाई तक जा सकता है।
सबसे सुन्दर बात तो यह कि गांधी ने निवृत्ति और प्रवृत्ति का सुमेल उसी प्रकार साधा जिस प्रकार महावीर ने भी भिक्षु और गृहस्थ दोनों के लिए जैन धर्म में प्रतिष्ठा पूर्वक रहने का अवसर प्रदान किया । गृहस्थ भी सुन्दर सेवक हो सकता है, वह भी आदर्श जैन हो सकता है और भिक्षु का जीवन भी समाजसेवा के बिना अपूर्ण रहेगा। महत्त्व भिक्षुवेश का नहीं, निष्कामसेवा का है। कषाय वस्त्र तो प्रतीक है कि हम अपने अन्तर के कषायों से छुट्टी पा लें तो भिक्षु एवं साध्वी की सार्थकता समाज-सेवा में है और समाज-सेवा का सोष्ठव निष्काम एवं निस्पृह भावना में है। सेवा करने का अहंकार तो बुरा है ही, भिक्षु बनकर उसका अभिमान तो और भी बुरा है।
जैन परम्परा को अनेकांत तत्त्वज्ञान और उसके वाचनिक संयंत्र स्याद्वाद पर गौरव होना ही चाहिए । वस्तुतः अहिंसा की साधना के लिए इससे बेहतर किसी यंत्र का आज तक कहीं आविष्कार नहीं हुआ। भावना त्मक अहिंसा का पाठ तो ईसा, बुद्ध आदि सभी धर्म-प्रवर्तकों एवं महापुरुषों ने दिया। लेकिन मनसा-वाचा कर्मण-अहिंसा का व्यावहारिक विज्ञान अनेकांतस्यादवाद में ही पाया गया है । अनेकांत-भावना वस्तुतः विचार के क्षेत्र में अहिंसा का अनुप्रवेश है । स्यादवाद तो अहिंसा की निर्दोष वाचनिक शैली है जब वस्तु के अनन्त धर्म हैं और मनुष्य का ज्ञान सीमित है तो मानव यह कैसे कह सकता है कि वह जो जानता है, वही सही है। यही कारण था कि भगवान महावीर अपने प्रवचन में स्यादवाद का सहारा लेकर हर प्रवचन के पूर्व 'स्यात्' का प्रयोग करते थे। किन्तु भगवान महावीर ने अनेकांत स्यादवाद को जिस प्रकार लोक-व्यवहार में प्रयोगकर उसे सर्वलोक हितकारक बनाया, उसे धर्म-चेतना का प्रवेश मंद होते ही जैन समाज ने उसे भुला दिया। इसके विपरीत अनेकांत के नाम पर भंग जाल और एकान्तिक कदाग्रह के झगड़े में फंसे रहे। उन्हें पता नहीं रहा कि अनेकांत केवल शस्त्रीय सिद्धांत या तर्कजाल नहीं बल्कि दैनंदिन जीवन और समाज की बेमेल प्रवृत्तियों के संघर्ष को समाधान करने का एक अनोखायंत्र है। भंगजाल और वादविजय तो अनेकांत का बाहरी कलेवर है, उसकी आत्मा नहीं । जीवन के हर क्षेत्रों में विरोधी का समन्वय और कटुता तथा संघर्ष का परिहार ही असली
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