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________________ समन्वय की साधना में जैन-संस्कृति का योगदान समन्वय भारतीय संस्कृति की सर्वोच्च साधना रही है । गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ने भारत को मानव-संस्कृतियों का सागर कहा है और इस पुण्य-तीर्थ में माता के मंगलघट को भर देने के लिए सबों का आह्वान किया है । साधना जितनी ही श्रेष्ठ होती है, उसकी यंत्रणा उतनी ही दुस्सह होती है। इसलिए भारत को इस समन्वय-साधना के हेतु समय-समय पर अपार यंत्रणा सहनी पड़ी है । लगता है, समन्वयरूपी अमृत प्राप्त करने के लिए गरल पान करना ही होता है। __ शायद, समन्वय हमारी संस्कृति की अनिवार्यता है । हमारा रूप-रंग भाषा-वेश-भूषा, रस्म-रिवाज, धार्मिक आस्था और विश्वास आदि कभी भी एक जैसा नहीं रहा। आर्यों एवं अनार्यों के बीच संघर्ष चलने के बाद ही हमारी जीवन-पद्धति ने निर्णय किया होगा कि समन्वय ही मानव-जीवन का मादर्श हो सकता है । फिर तो आर्यों एवं द्रविड़ों के संयोग से एक भव्य भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ। इसी तरह पौर और जानपद संस्कृतियों के साथ उत्कृष्ट आरण्यक-संस्कृति का भी हम पर प्रभाव पड़ा । अरण्य के साथ सम्बन्ध होने से वृक्ष, वनस्पति का गुणधर्म मालूम होने पर आहार और आरोग्य में प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग बढ़ा। चन्द्र किरणों के वनस्पति पर होने वाले प्रभावों का सूक्ष्म अध्ययन और पशु तथा मनुष्यों के बीच मूलभूत एकता की ओर ध्यान भी गया और अनुभव हुआ कि सर्वत्र एक ही चैतन्य है। शायद, यहीं पर हमें अहिंसा का साक्षात्कार हुआ। मांसाहार का परित्याग कर हमने पशु-जगत् और मानव-जगत के बीच समन्वय की दिशा में एक प्रभावकारी कदम बढ़ाया है । इसका अर्थ यह नहीं कि समाज में एक वर्ग के द्वारा दूसरे का शोषण बन्द हो गया या ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच युद्ध हुए ही नहीं या यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि नहीं हुई। लेकिन लोगों का समन्वय स्वभाव प्रेम सहयोग, क्षमा और सहिष्णुता का ही रहा । साम, दाम, भेद और उपेक्षा आदि भाजमाने के बाद ही दंड का प्रयोग होता था। आक्रमणकारी शकशीथियन, गुर्जर, प्रतिहार आदि को भी हमने अपनी संस्कृति में समावेश कर लिया । हमने किसी देश के भू-भाग को जीतने के लिए कभी आक्रमण नहीं किया। आक्रमणकारियों को भी बार-बार क्षमा किया। हमारे यहां जितने युद्ध हुए वे प्रायः अन्तर-अन्तर के हुए, जिनमें राजाओं के ईर्ष्या-द्वेष, लोभ और महत्त्वाकांक्षा के बीच संघर्ष था। समाज का बहुत बड़ा भाग तो अछूता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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