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ऋषभ और महावीर का वाचक भी है। जब आत्मा अकेला है तब उसका स्वभाव है अच्छाई की ओर जाना, ऊंचाई की ओर जाना । उपाधि के कारण वह नीचे की ओर जा रहा है । उपाधि उसे दूसरी दिशा में ले जा रही है। उपाधि और पाप ___ भगवान् महावीर ने अन्वेषण किया-आदमी नीचे क्यों जाता है ? वह पाप की ओर क्यों जाता है? उन्हें समाधान मिला-वह जो लुप्त हो रहा है, अपने अस्तित्व का लोप कर रहा है, उसका कारण है उपाधि सहित होना। जहां-जहां उपाधि की दिशा में प्रस्थान है, वहां-वहां प्रमाद और पाप है। जहां-जहां निरुपधि की ओर प्रस्थान है वहां-वहां धर्म और अप्रमाद है। अहिंसा का भी मूल आधार यही है। इसी आधार पर कहा जाता है-अपरिग्रहः परमो धर्म । उपाधि रहित होना अपरिग्रह का आधार सूत्र बनता है। यह सूत्र कितना सफल या असफल हुआ है, इसकी समीक्षा की जा सकती है किन्तु भगवान् महावीर ने इसका जो कारण बतलाया है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। दुःख का कारण
आत्मा का जो द्वन्द्वात्मक अस्तित्व है, आत्मा के साथ पुद्गल का जो योग है, वह योग ही पाप का बहुत बड़ा कारण बनता है। उसे हम मिथ्यात्व कहें, अविरति कहें, प्रमाद कहें, कषाय कहें या चंचलता कहें । भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में ये अलग-अलग रूप ले लेते हैं किन्तु इनके मूल में आत्मा के साथ उपाधि का जुड़ना है, पुद्गल का योग होना है। जितनी उपधियां हैं या जितनी उपाधियां हैं, वे सब मनुष्य को पाप की ओर ले जाती हैं। कहा गया-कम्मणा उवाही जणयई कर्म से उपाधि पैदा होती है । हम एक शब्द में कहें तो कहा जा सकता है-आदमी कर्म से बंधा हुआ है इसलिए वह पाप करता है । बंधे हुए आदमी का आचरण एक प्रकार का होता है
और खुले हुए आदमी का आचरण दूसरे प्रकार का होता है। कोई आदमी सहज ही पाप की ओर क्यों जाता है ? इस प्रश्न का सीधा उत्तर यही हो सकता है-व्यक्ति परवश है, वह स्ववश नहीं है । मनु स्मृति में कहा गया—सर्वं परवंश दुखं:सर्वमात्मवशं सुखम्-दुःख का कारण है परवशता। आदमी कर्म से बंधा हुआ है, परवश है। वह परवशता के कारण नीचे की ओर जा रहा है। पाप का मूल है कर्म
महावीर ने देखा-पाप का मूल है कर्म । इसलिए उन्होंने पाप का वर्जन
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