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प्रस्तुति
दो ध्रुव । एक अर्हत् परम्परा का दूसरा श्रमण परम्परा का । दोनों में बहुत दूरी फिर भी दोनों परस्पर संबद्ध । ऋषभ अर्हत् हैं और महावीर श्रमण हैं । श्रमण परम्परा का आदि-बिन्दु अर्हत् है उसका चरम बिंदु श्रमण। ऋषभ ने समाज व्यवस्था की संरचना की फिर धर्मचक्र का प्रवर्तन, प्रवृत्ति से निवृत्ति में प्रवेश । महावीर प्रारम्भ से ही संयम के अभिमुख रहे हैं। दोनों का बहुत विशाल है अवदान । लघु पुस्तिका में उनका संक्षिप्त लेखा-जोखा । पाठक सरलता से उन तक पहुंच सके, आज के संदर्भ में उनसे साक्षात्कार कर सकें, बस इतनी सी छोटी यात्रा । 'जैनधर्म अर्हत् और अर्हताएं' पुस्तक का पहला-दूसरा अध्याय, शेष में अशेष का समावेश ।
आचार्य महाप्रज्ञ
मारवाड़ जंक्शन पाली (राजस्थान) १४ जून, ९०
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