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ऋषभ और महावीर
आदमी त्याग कर रहा है। यदि वह त्याग न करे तो उसे एक दिन में ही भंयकर परिणाम भुगतना पड़े। एक व्यक्ति चौबीस घंटा निरन्तर भोग करता चला जाए, चौबीस घंटा निरन्तर खाता चला जाए, चौबीस घंटा निरन्तर पीता चला जाए तो परिणाम क्या आएगा? इससे हम अपरिचित नहीं हैं। भोग त्याग के आधार पर चलता है, पर हम इस तथ्य को नकार देते हैं। तीर्थ का प्रवर्तन
भगवान् ऋषभ ने पक्ष के सामने प्रतिपक्ष का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। समाज है तो असमाज का होना जरूरी है। भोग है तो त्याग का होना जरूरी है। पदार्थ है तो अपदार्थ का होना जरूरी है। इसका नाम हो गया-धर्मतीर्थ का प्रवर्तन । जब धर्मतीर्थ का प्रवर्तन होता है तब साधु और साध्वी, श्रावक और श्राविका समाज निर्मित होता है । यह दूसरे नंबर की बात है। यह तीर्थ का मूल अर्थ नहीं है । तीर्थ का मूल अर्थ है—प्रवचन । भगवान् ने जो नया बोध-पाठ दिया, वही तीर्थ का प्रवर्तन हो गया। उपचार से साधु-साध्वियां, श्रावक-श्राविकाएं भी कहलाते हैं। उनके प्रवचन से अनेक व्यक्ति प्रबुद्ध बने, साधु-साध्वी, श्रावक, और श्राविका बने। ये तीर्थ के चार घटक हैं। तीर्थ के प्रवर्तन, समता धर्म के प्रवर्तन से समाज के सामने एक नया आदर्श और एक नई भूमिका प्रस्तुत हो गई। ऋषभ की तपोभूमि : हिमालय
__ भगवान् ऋषभ ने हिमालय पर तप तपा। हिमालय भगवान् ऋषभ की तपोभूमि रही है। वहां उन्होंने बहुत कुछ पाया। आज इतिहास की खोज वहां जा रही है। यह माना जाने लगा है-ऋषभ और शिव दो व्यक्ति नहीं हैं। एक ही व्यक्ति की दो धाराएं बन गईं। एक धारा ने उसका नाम शिव दे दिया और दूसरी धारा में उसका नाम ऋषभ रहा । मूलत: दोनों व्यक्ति एक ही हैं। कुछ वर्ष पूर्व आचार्य श्री धारवाड़ पधारे । हमने धारवाड़ यूनिवर्सिटी को पुरातत्त्व विभाग में ऋषभ की जटाधारी प्रतिमा को देखा। ऋषभ और शिव-इन दो व्यक्तियों की जटाधारी प्रतिमाएं मिलती हैं। ऋषभ की प्रतिमा धारवाड़ में और शिव की प्रतिमा इन्दौर के संग्रहालय में है । कहा जाता है-ऋषभ ने दीक्षा लेते समय केश लुंचन किया। जब चार मुष्टि लुंचन संपन्न हो गया तब इन्द्र ने प्रार्थना की-महाराज! यह केश-कलाप कितना सुन्दर लग रहा है ! क्या आप इसे भी काट देंगे? आप इसे ऐसे ही रहने दीजिए। ऋषभ ने इन्द्र की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। उन्होंने एक-मुष्टि केश का लुंचन नहीं किया ।
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