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________________ न पूर्णतः शक्तिहीन किया जा सकता है। यही हमारे लिए प्रकाश की पहली रश्मि है। यदि यह नहीं होती तो हम कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो पाते। किन्तु हमारे पास वह है स्वतंत्रता, जिसके द्वारा ही परिवर्तन की सारी बातें संभव हो सकती हैं। सबसे पहली बात है अपने स्वरूप का संधान । जिस व्यक्ति में यह सम्यग्दृष्टि जाग जाती है, अपने स्वरूप के संधान की बात चेतना पर उतर आती है, वह व्यक्ति आवेगों में परिवर्तन करने में सक्षम हो जाता है। स्वरूप के संधान का अर्थ है-भेदज्ञान की प्राप्ति । आध्यात्मिक भूमिका में परिवर्तन का यह पहला बिन्दु है। जब यह भेदज्ञान जाग जाता है, वहां से परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। हम बदलना शुरू कर देते हैं। इससे इतना आंतरिक परिवर्तन, इतना रूपांतरण आ जाता है, व्यक्ति इतना रूपांतरित हो जाता है कि पहले का व्यक्ति और भेदज्ञान या सम्यग्-दृष्टि प्राप्त होने के बाद का व्यक्ति, एक ही व्यक्ति नहीं रह जाता । उसके व्यक्तित्व का आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है। जीवन और विश्व के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है। जीवन को देखने का कोण बदल जाता है। पहले जिस दृष्टि से पदार्थ को देखता था, उसी दृष्टि से अब पदार्थ को नहीं देखता। जिस दृष्टि से अपने को पहले देखता था, उसी दृष्टि से अब अपने को नहीं देखता। अपने को देखने का दृष्टिकोण और पदार्थ को देखने का दृष्टिकोण-दोनों बदल जाते हैं। दृष्टिकोण के परिवर्तन से आवेगों पर करारी चोट होती है, तीव्र प्रहार होता है । जिस दृष्टिकोण के आधार पर आवेगों को पोषण मिल रहा था, सिंचन मिल रहा था, उस दृष्टिकोण के बदल जाने पर आवेगों को वह पोषण और सिंचन मिलना बंद हो गया, जीवन रस प्राप्त होना बंद हो गया। आवेगों को सिंचन मिलता है अहंकार के द्वारा, ममकार के द्वारा। जब तक अहंकार और ममकार हैं, तब तक आवेश पुष्ट होते रहेंगे, बढ़ते रहेंगे, फलते-फूलते रहेंगे। जैसे ही दृष्टिकोण बदलता है, अहंकार और ममकार की गांठ टूट जाती है और तब आवेगों को जीवन-रस, पोषण-रस मिलना बंद हो जाता है। उनका आधार ही समाप्त हो जाता है। इसलिए आवेगों की चिकित्सा का पहला सूत्र है-दृष्टिकोण का परिवर्तन, सम्यग्-दृष्टि की प्राप्ति। ____ इसका दूसरा सूत्र है-विपाक की प्रेक्षा, विपाक को देखना। यह भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है। हम विपाक की प्रेक्षा नहीं करते, उसे नहीं देखते । इसीलिए उच्छखल प्रवृत्तियां चलती हैं। यदि हम प्रवृत्ति के विपाक पर ध्यान दें और यह देखने का प्रयत्न करें कि इसका विपाक क्या होगा, क्या विपाक हो रहा है तो उच्छखल प्रवृत्तियां या आवेग नहीं चल सकते। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, वह जो कुछ करता है और वह विमर्श करता चलता है कि मेरे आचरण का, मेरे कार्य का क्या परिणाम होगा, क्या विपाक होगा, तो वह बहुत ही विवेक और - आवेग-चिकित्सा : १६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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