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________________ जितना विकास होता है, वह व्यवहार-राशि में ही होता है। अव्यवहार-राशि में किसी का विकास नहीं होता। वहां केवल एक इन्द्रिय, एकमात्र स्पर्शनेन्दिय होती है। वे सब वनस्पति के जीव हैं । यह वनस्पति के जीवों का अनन्त कोष है। इससे जीव निकलते हैं पर यह कभी खाली नहीं होता। यहां केवल एक इन्द्रिय की चेतना का विकास होता है । आगे विकास नहीं होता। न मन का विकास, न अन्य इन्द्रियों का विकास और न बुद्धि का विकास । कोई विकास नहीं। केवल स्पर्शन इन्द्रिय--त्वचा का विकास, प्रगाढ़ मूर्छा, प्रगाढ़ निद्रा। जो चैतन्य प्राप्त है, उसका सूचक है स्पर्शन इन्द्रिय और कुछ भी नहीं। इस अव्यवहार-राशि से कुछ जीव व्यवहार-राशि में आते रहते हैं। क्यों आते हैं---यह एक प्रश्न है ? यदि कर्म ही सब कुछ होता तो वे वहां से निकल ही नहीं पाते। किन्तु काललब्धि, काल की शक्ति के आधार पर वे वहां से निकलकर व्यवहार-राशि में आ जाते हैं। काल की शक्ति असीम होती है। उसी शक्ति के आधार पर वे वहां से निकलते हैं। यदि कर्म के आधार पर निकलते तो जैसे दस जीव निकलते हैं, वैसे ही सौ-हज़ार जीव भी निकल आते। लाख और करोड भी निकल आते । अनन्त भी निकल आते। किन्तु वे कर्म की शक्ति से नहीं निकलते। वे निकलते हैं काल की शक्ति से, काललब्धि से। व्यवहार-राशि के जीवों की भी दो श्रेणियां हैं--एक है कृष्णपक्ष और दूसरी है शुक्लपक्ष । कुछ जीव हैं कृष्णपक्ष वाले और कुछ जीव हैं शुक्लपक्ष वाले। जैसे चन्द्रमा के दो पक्ष होते हैं---कृष्ण और शुक्ल, काला और सफ़ेद, वैसे ही हमारे जीवन के भी दो पक्ष हैं-कृष्ण और शुक्ल, काला और सफ़ेद । कृष्णपक्ष हमारे अनिष्ट कर्मों का सूचक है, अनिष्ट वातावरण का सूचक है, तामस वृत्तियों का सूचक है। शुक्लपक्ष हमारे विकास का सूचक है, बंधनमुक्ति की ओर अग्रसर होने का सूचक है। जो व्यक्ति कृष्णपक्ष में है, वह आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता। आध्यात्मिक विकास वही व्यक्ति कर सकता है, जो शुक्लपक्ष में है। उसका जो वातावरण है, उसकी जो ओरा (Aura) है, आभा-मंडल है, पर्यावरण है, वह शुक्ल हो जाता है। उस व्यक्ति के आसपास शुक्लता का वातावरण छा जाता है। वह व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है। उसका विकास प्रारम्भ हो जाता है। एक प्रश्न उभरता है कि कोई भी जीव कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष में क्यों आता है ? कैसे आता है ? इसका कोई हेतु नहीं है। कर्म एकमात्र कारण नहीं है। कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष में आने का हेतु है-काललब्धि । काल की शक्ति से ऐसा होता है। जैसे परिस्थिति की एक शक्ति है, वैसे ही काल की भी शक्ति है। इसी १५० : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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