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________________ तब वह प्यास को बुझाने वाले साधनों को प्यास लगाने वाले तथा प्यास लगाने वाले साधनों को प्यास बुझाने वाले साधन मानने लग जाता है । सारी बात उलट जाती है। जब तक यह मिथ्यात्व का बंधन नहीं टूटता, तब तक कर्म का चक्र टूट नहीं सकता । इसे तोड़ा नहीं जा सकता । मिथ्यादृष्टि के अस्तित्व -काल में, यह जानते हुए भी कि प्यास है और प्यास बुझाने के साधन भी हैं, हम उन्हीं साधनों को ढूंढ़ते हैं, जिनसे प्यास और अधिक बढ़ जाती है । यह इसलिए होता है कि उसकी तह में मिथ्यात्व अवस्थित है । मिथ्या दृष्टिकोण, मति का विपर्यय, बुद्धि का विपर्यास — सत्य को विपरीत ग्रहण करने के लिए बाध्य करता है । जब तक मिथ्यात्व रहेगा तब तक आकांक्षाएं रहेंगी, प्यास बनी -की- बनी रहेगी। जब तक प्यास बनी रहेगी, तब तक प्रमाद भी होता रहेगा, भ्रान्ति होती रहेगी, विस्मृति होती रहेगी। विस्मृति, जैसे- हम ने एक बार जान लिया कि धन सुख का साधन नहीं है । यह तथ्य स्मृतिपटल पर अंकित है, किन्तु जसे हम कार्यक्षेत्र में उतरेंगे, कर्मक्षेत्र में प्रवेश करेंगे, तब इस बात को भूल जाएंगे, कि धन, संपत्ति, ऐश्वर्य सुख के साधन नहीं हैं । हम यह मानने लग जाएंगे या हमें ऐसा लगने लगेगा कि संसार में कोई सारभूत वस्तु है तो वह धन है, संपत्ति है, ऐश्वर्य है । शेष सब कुछ असार-ही-असार है, व्यर्थ है, मिथ्या है। धन है तो सब कुछ है, धन नहीं है तो कुछ भी नहीं, धन ही सार है, यही सारभूत है, पदार्थ है । अब प्रश्न होता है कि ऐसा क्यों होता है ? इसका समाधान यह है कि हम भूल जाते हैं, विस्मृति हो जाती है, प्रमाद उभर जाता है, इसलिए ऐसा होता है । जब तक ये चार तत्त्व - मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद और कषाय-- अस्तित्व में रहते हैं, तब तक चंचलताओं को रोका नहीं जा सकता। चंचलता के चक्र को धीमा नहीं किया जा सकता। वह चक्र इतना तेज़ी से घूमने लगता है कि उसका अनुमान करना भी कठिन हो जाता है । व्यक्ति ध्यान करने के लिए बैठता है तो कभी आकांक्षाओं का ज्वार आता है, कभी प्रमाद का अंधकार छा जाता है, कभी कषाय की आग भभक उठती है और वह ध्यान से भटक जाता है । ध्यान छूट जाता है और वह संकल्प - विकल्प के जाल में फंस जाता है । उस जाल में ऐसी समाधि लगेगी कि वास्तविक समाधि का छोर छूट जायेगा। यह इसलिए होता है। कि हम शोधन करते हुए नहीं आ रहे हैं। हमारी वृत्तियों का शोधन नहीं हो पाया है । साधना की सफलता के लिए हमें इन कर्मशास्त्रीय रहस्यों को समझना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है । हम मिथ्या दृष्टिकोण को छोड़ें, सम्यक् दृष्टिकोण को अपनाएं, अविरति को छोड़ें और विरति को ग्रहण करें, प्रमाद को छोड़कर अप्रमाद में आएं और कषाय की आग को शान्त कर चलते जाएं। इतना होने पर कर्म के बन्ध : १४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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