SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आकार इसलिए नहीं बनता कि इन्द्रियों के पूरे विकास की क्षमता उस सूक्ष्म शरीर में नहीं है। सूक्ष्म शरीर में जब इन्द्रिय-विकास की पूरी क्षमता नहीं है, पूरा विकास नहीं है, तो स्थूल शरीर उसका संवादी नहीं होता, उसमें उसके आकार नहीं बनते । आकार के बिना इन्द्रिय-बोध भी स्पष्ट नहीं होता। एकेन्द्रिय जीव में भी पांचों इन्द्रियों का अस्पष्ट बोध होता है। उन्हें स्पष्ट बोध इसलिए नहीं होता कि उन इन्द्रियों के स्थान विकसित नहीं होते। शरीर में इन्द्रियों के जो स्थान है, जो कोशिकाएं हैं, वे सक्रिय नहीं होतीं, विकसित नहीं होतीं। इसीलिए स्पष्ट ज्ञान का अभाव रहता है। यह एक शृंखला है-भावचित्त का संवादी होता है पौद्गलिक चित्त और पौद्गलिक चित्त का संवादी होता है स्थूल शरीर । स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और भाव शरीर (कर्मशरीर)-इन तीनों में परस्पर संवादिता है। एक जैसा होता है, दूसरा भी वैसा ही होता है। और दूसरा जैसा होता है, तीसरा भी वैसा ही होता है । हम इस सचाई को न भूलें कि सूक्ष्म जगत् में जिस प्रकार के हमारे चित्त का निर्माण होता है, जिस प्रकार का भावकर्म होता है, वैसा ही पौद्गलिक कर्म होता है। आत्मा कभी पुद्गल को आकर्षित नहीं करती, क्योंकि आत्मा के पास पुद्गल को आकर्षित करने की कोई शक्ति नहीं है। किन्तु एक माध्यम है उसके पास जिसके द्वारा वह पुद्गल को आकर्षित करती है । वह माध्यम है-भावकर्म या आस्रव। भावकर्म या आस्रव पांच हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। ये पांच शक्तियां हैं पुद्गलों को आकर्षित करने वालीं। ये हमारे पांच चित्त हैं। एक चित्त है मिथ्यात्व का, एक चित्त है अविरति का, एक चित्त है प्रमाद का, एक चित्त है कषाय का और एक चित्त है योग का। इन पांचों चित्तों का निर्माण होता है और समय-समय पर ये चित्त मंद-तीव्र होते रहते हैं। जिस प्रकार के ये चित्त होते हैं, उसी प्रकार के द्रव्यचित्तों, पौद्गलिक चित्तों का निर्माण होता चला जाता है, और संबंध की संरचना होती चली जाती है। आस्रवों के बिना कर्मों का आकर्षण नहीं हो सकता और न कर्मों का एक विशेष संरचनात्मक रूप ही बन सकता है। हम पुद्गलों को आकर्षित करते हैं और एक विशेष प्रकार का उन्हें रूप देते हैं, सांचे में ढालते हैं । ये दोनों काम भावचित्त के बिना या भावकर्म के बिना नहीं हो सकते, इसीलिए हम कर्म पर बहुत चिंतित नहीं होते, किन्तु भावचित्त पर ज्यादा चिंतित होते हैं, भावकर्म पर ज्यादा ध्यान देते हैं। राग-द्वेष का प्रत्येक क्षण कर्म-आकर्षण का या कर्म-बंध का क्षण है। हम साधना की दृष्टि से जब विचार करते हैं, तब इस बात से चिंतित न हों कि कर्म का बहुत आकर्षण होता है या हो रहा है। किन्तु जो राग-द्वेष का क्षण कर्म को आकृष्ट करता है, उसके प्रति जागरूक हों। हम बहुत बार कहते हैं-जागरूक रहें, अप्रमत्त रहें। प्रश्न होता है कि किसके प्रति जागरूक रहें ? किसके प्रति कर्म की रासायनिक प्रक्रिया (१) : ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy