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________________ तो यह प्रश्न होता है कि आत्मा और कर्म में क्या संबंध हैं ? एक-दूसरे पर क्या उपकार है ? एक-दूसरे पर क्या प्रभाव है ? यह सत्तागत कुछ भी नहीं, उपादान गत कुछ भी नहीं । निमित्त की सीमा में जितना हो सकता है, उतना ही होगा। उसकी भी एक सीमा है । संसार में असीम कुछ भी नहीं है। हर शक्ति की एक सीमा है । हम उसे अनन्त भी कह सकते हैं। अपनी सीमा में आकाश अनन्त है, असीम है। किन्तु जहां आत्मा का अस्तित्व है, वहां आकाश नहीं है। जहां धर्मास्तिकाय का, अधर्मास्तिकाय का और पुद्गलास्तिकाय का अस्तित्व है, वहां आकाश का अस्तित्व नहीं है। वह अपने क्षेत्र में है, अपने अस्तित्व में है। आकाश अपने अस्तित्व में है। किन्तु जहां दूसरे द्रव्यों का अस्तित्व है, वहां आकाश नहीं है। यह अस्तित्व की भी एक सीमा है। पदार्थ की अस्तित्वगत एक सीमा होती है। अस्तित्वगत सीमा में सब हैं । अस्तित्व कुछ भी नहीं बदलता। केवल परिधि में सारे के सारे परिवर्तन होते हैं। परिवर्तन परिधिगत होते हैं । परिधियां बदलती रहती हैं, केन्द्र नहीं बदलता। कर्म का निमित्त मिलता है तो अमूर्त मूर्त रूप में व्यवहृत होने लग जाता है। कर्म का निमित्त मिलता है तो चेतन अचेतन रूप में व्यवहृत होने लग जाता है। इसीलिए आत्मा को पुद्गल भी कहा जाता है, मूर्त भी कहा जाता है। आत्मा अमर्त है, चेतनामय है, अखण्ड चेतनावान् है-यह हमारी भविष्य की अवधारणा है । यह वह धारणा है जिस दिन सब कर्मों का वियोग हो जायेगा, कर्म परमाणुओं के साथ जो संबंध स्थापित हैं, वे सब टूट जाएंगे, भावकर्म (आस्रव) समाप्त हो जाएंगे और साथ-साथ द्रव्यकर्म (कर्म पुद्गल) भी समाप्त हो जाएंगे, उस स्थिति में आत्मा अखंड ज्योतिर्मय, अखंड चैतन्यमय और पूर्ण सूर्य के रूप में प्रकट होगा। जहां कोई आवरण नहीं होता, अचेतन का कोई संबंध नहीं होता, केवल चेतना और चेतना, उस दिन आत्मा अमूर्त होगा। पूर्ण अमूर्त जहां कि किसी भी मूर्त का कोई अंश नहीं है। मूर्त ही तो अमूर्त को मूर्त बनाता है। जिस दिन वह मूर्त सर्वथा टूट जायेगा, दूर हो जायेगा, तब शेष रहेगा अमूर्त, केवल अमूर्त । तब न कोई आकार होगा, न कोई प्रकार होगा, न कोई मूर्त होगी, कुछ भी नहीं, केवल अमूर्त। जिस स्थिति में संसारी आत्माएं हैं, वे अमूर्त नहीं हैं। वे संसार में कब से हैं, यह हम नहीं जानते । उसका हमें कोई पता ही नहीं है। उस स्थिति में शुद्ध नय की दृष्टि से हम यह नहीं कह सकते कि आत्मा अमूर्त है और हम यह भी नहीं कह सकते कि आत्मा अखण्ड चैतन्य वाला है। वह दो का मिला-जुला रूप है। अमूर्त है तो साथ में मूर्त भी जुड़ा हुआ है। वह चेतनावान् है तो साथ में उस पर अचेतन द्रव्य का आवरण भी है। इसलिए चेतना की पूर्ण सत्ता नहीं है। वहां अचेतन का भी कुछ अस्तित्व है। आत्मा के साथ भावकर्म का योग है। भावकर्म कर्म की रासायनिक प्रक्रिया (१) : ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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