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प्रस्तुति
सब सापेक्ष हैं। परिपूर्ण अस्तित्व ही हो सकता है । व्यत्तित्व अस्तित्व का बाह्य आवरण' है । उसमें परिपूर्णता का दर्शन संभव नहीं है किन्तु अपूर्णता इतनी न हो कि अस्तित्व छिप जाए । पर्वत राई की ओट में हिप न जाए, यह जीवन-सत्य है । आदमी सत्य को अटलाकर न चले इसलिए जरूरी है स्वाध्याय, जरूरी है चिन्तन, मनन और निदिध्यासन । 'सत्यं शिवं सुन्दरं' के शब्दोच्चार में जितना रस है उतना उसकी साधना में नहीं है। अनेक त्यवाद और अनेक मिथ्यावाद मनुष्य की परछाई के साथ-साथ चलते हैं। नुष्य किसको कितना प्रश्रय दे, यह उसके विवेक पर निर्भर है।
विवेक सोता भी है, जागता भी है। प्रस्तुत पुस्तक 'मंजिल के पड़ाव' में विवेक-जागरण के कुछ सूत्र हैं, मंत्र हैं, प्रयोग और पद्धतियां हैं । 'घड़ी नहर का और ढक्कन अमृत का' यह बाह्य जगद और अन्तर्जगत् का यथार्थ चत्रण है । नीतर का दिखाई नहीं देता, बाहर का दिखाई देता है, इसीलिए अनुष्य रक्त को उतना मूल्य नहीं देता, जितना चमड़ी को देता है । जीवन को उतना महत्त्व नहीं देता, जितना जीविका को देता है। अमन को उतना गुल्य नहीं देता, जितना मन को देता है। मन के अमन बन जाने पर घड़ा मी अमृत का और ढक्कन भी अमृत का। मन को साधने के लिए बहुत नानना जरूरी है, उससे भी अधिक जरूरी है अमन को साधने के लिए।
का नदी में ही रहेगी, तट पर नहीं जाएगी, पर तट तक जाने के लिए जरूरी इ नौका । मन जरूरी है भमन तक पहुंचने के लिए । वही नौका तट तक ले जाती है, जो निश्छिद्र हो । वही मन अमन तक ले जा सकता है, जिसमें वेद न हो । यह निश्छिद्रता की साधना परम तत्त्व है। उसके लिए पाथेय बन सकती है यह पुस्तक ।
आचार्यवर की सन्निधि मेरे लिए एक सहज प्रेरणा है । उनकी उपस्थिति में जो स्रोत प्रवाहित होता है, वह अन्यत्र प्रवाहित नहीं होता। वचन के समय ऐसा प्रतीत होता है कि मैं नहीं बोलता कोई आंतरिक प्रेरणा बोलती है । मुनि दुलहराजजी प्रारम्भ से ही साहित्य संपादन में लगे हुए हैं। वे इस कार्य में दक्ष हैं । प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि धनंजय कुमार ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है। २५/१०/९२ दीपावली
युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.)
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