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________________ अवचेतन मन से संपर्क करने की प्रक्रिया है । ग्रन्थिों के जो स्राव आते हैं, वे एक ही प्रकार के नहीं होते । संभवतः मेडीकल साइंस में इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं है, किन्तु कर्म साहित्य के परिप्रेक्ष्य में यह बात स्पष्ट है कि सूक्ष्म शरीर में, सूक्ष्म चेतना में जिस भावधारा के स्पंदन होते हैं वे अपने समतुल्य स्पंदन पैदा करते हैं और उसी प्रकार के भाव बन जाते हैं। वे भाव स्राव को नियंत्रित करते हैं। हमारे मस्तिष्क का भाग 'हाइपोथेलेमस' भावना के प्रति बहुत संवेदनशील होता है । वह भावना को बहुत जल्दी पकड़ता है। भावना प्रभावित करती है हाइपोथेलेमस को और वह प्रभावित करता है हारमोन्स को और ग्रंथियों को। फिर हमारे भाव प्रभावित होते हैं। भावनात्मक विकास का मूल आधार है हमारी भावधारा । प्रेक्षा-ध्यान का प्रयोग केवल श्वास, शरीर आदि को देखने का प्रयोग नहीं है, यह तो मात्र आलंबन है, माध्यम है। यह ऐसी भावधारा का प्रयोग है, जो सम है । न राग और न द्वेष, न प्रियता और न अप्रियताइन दोनों से बचकर शुद्ध चेतना का उपयोग, शुद्ध चेतना की प्रवृत्ति—यही है समता । जब यह प्रवृत्ति होती है तब हमारा सारा तंत्र प्रभावित होता है । जब तक आदमी भावधारा और ग्रन्थितंत्र के रसायनों का परिष्कार करने की चेष्टा नहीं करेगा, तब तक ज्ञान बहुत बढ़ जाने पर भी मानसिक समस्याओं का समाधान नहीं हो पाएगा। मानसिक कठिनाइयां और दुःख कम नहीं होगा, उलझनें कम नहीं होंगी। समाज ज्ञान की अपेक्षा चरित्र को अधिक महत्त्व देता है। आज चरित्र का ह्रास भले ही हुआ हो, पर आज भी आदमी चरित्र को ही महत्त्व देता है। सभी दुकानों पर यही लिखा मिलेगा, 'यहां शुद्ध वस्तु मिलती है। किसी भी दुकान पर यह बोर्ड नहीं मिलेगा कि 'यहां अशुद्ध पदार्थ बेचे जाते हैं।' आदमी कितना ही मिलावटी माल बेचे, पर बोर्ड पर विशुद्धि का ही अंकन करेगा। सेठ कितना ही बेईमान और अप्रामाणिक क्यों न हो, वह चाहेगा यही कि उसे ईमानदार और प्रामाणिक नौकर मिले । कोई भी व्यक्ति बेईमान नौकर को नहीं चाहेगा। कहा गया-'नाणस्स सारं आयारो'-ज्ञान का सार है आचरण । ज्ञान की निष्पत्ति है आचार, आचरण । ज्ञान का अपने आप में कोई उपयोग नहीं होता । उसकी निष्पत्ति समाज में आती है ज्ञान के द्वारा । आदमी समाज को कैसे बदलता है, समाज के प्रति कैसा व्यवहार करता है, यह है ज्ञान की निष्पत्ति । आज समस्या यह है कि हमारे पास ज्ञान की कसौटी तो है, पर आचरण की कोई कसौटी नहीं है। ज्ञान की परीक्षा होती है। उसके मानदंड हैं पर आचरण के लिए कोई मानदंड नहीं है। ऐसी स्थिति में यदि चरित्र का ह्रास होता है, आचरण का ह्रास होता है तो हमें कष्ट क्यों होना चाहिए। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि वार्तमानिक सामाजिक मूल्यों और वैयक्तिक मूल्यों में यदि चरित्र का ह्रास होता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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