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मनोविज्ञान ने जब मस्तिष्क को त्रि-आयामी व्याख्या प्रस्तुत की तब अज्ञात को जानने का अवसर मिला। चेतन और अवचेतन मन से हम परिचित हैं। दोनों संबद्ध हैं। कभी चेतन मन अवचेतन में बदल जाता है और कभी अवचेतन मन चेतन मन में परिवर्तित हो जाता है। दोनों मिले जुले हैं। किन्तु अचेतन मन की कल्पना नये रूप में प्रस्तुत हुई है। इस अन्कोन्शियस माइण्ड के विषय में फ्रायड ने जो कुछ कहा, वह नई बात थी और संभवतः आज भी वह नई मानी जाती है।
भारतीय दार्शनिकों ने सूक्ष्म शरीर की बात बताई। यदि सूक्ष्म शरीर का हम अध्ययन करते तो और आगे बढ़ जाते और व्यवहार तथा आचरण की कई गुत्थियां सुलझ जातीं। हमारा यह स्थूल शरीर ही सब कुछ नहीं है। इसके भीतर सूक्ष्म शरीर विद्यमान है। आदमी की प्रत्येक प्रवृत्ति, चिन्तन और आचरण का उसमें प्रतिबिम्ब होता है उस सूक्ष्म शरीर में केवल दमित वासनाएं ही नहीं हैं, अच्छे संस्कार भी हैं। यदि केवल इच्छाएं और वासनाएं ही होती तो व्यक्तित्व का रूप अत्यन्त भद्दा हो जाता। उसमें कभी सौंदर्य नहीं आ पाता। सूक्ष्म शरीर की व्याख्या में ये दोनों तथ्य बहुत स्पष्ट हो जाते हैं कि उसमें हमारा अच्छा और बुरा आचरण, अच्छा और बुरा चिन्तन- दोनों अंकित होते हैं जब ये संचित संस्कार प्रकट होते हैं तब अच्छाई भी प्रगट होती है और बुराई भी प्रगट होती है।
इस अज्ञात और सूक्ष्म व्यक्तित्व के साथ हमारा संपर्क स्थापित हो, जीवन की सफलता के लिए यह अत्यन्त अपेक्षित है। मनोवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति के तीन आयाम हैं : - आनुवंशिकता, पर्यावरण और व्यक्तिगत संस्कार। इसके साथ चौथा आयाम (डाइमेन्शन) और जोड देना चाहिए। वह है कर्म। कर्म के जोड़ने पर ही समय व्याख्या की जा सकती है! PIVae a personal use Only |
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