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________________ जीवन विद्या १८३ एक कारण तो यह भी है कि आज के छात्रों का धर्म-संस्थान से संपर्क नहीं है । दूसरा कारण है कि धर्म गुरु भी अपने दायित्व के प्रति पूर्ण जागरूक नहीं है । छात्र के सिर पर आज अध्ययन का भार इतना है कि वह धर्म-संस्थान से संपर्क रखने में असहाय है और शिक्षा-संस्थाओं में आज वातावरण भी ऐसा है कि धर्म के प्रति कोई उत्साह या प्रेरणा नहीं मिलती । आज धर्म संस्थानों का वातावरण भी प्रज्ञा को जगा सके, वैसा नहीं है । दोनों ओर से संभावनाएं समाप्त हो रहीं है । न तो विद्या-संस्थानों में ये संभावनाएं शेष हैं और न धर्म-संस्थानों में ही ये हैं । इसलिए मैं बहुधा सोचता हूं कि धर्म-संस्थानों का दायित्व भी विद्या संस्थानों को ले लेना चाहिए । आज शिक्षा संस्थानों में जो अध्यापक या प्राध्यापक हैं, वे विद्यार्थी को केवल बौद्धिक विकास का ही अवदान न दें, साथ-साथ प्रज्ञा के जागरण का अवदान भी दें। ऐसा हो सकता है और इसलिए हो सकता है कि अभी शिक्षा-संस्थान कोई समुदाय नहीं है, सम्प्रदाय नहीं है, उसके पीछे धर्म-अधर्म की, जगत् सृष्टि की कोई ऐसी निश्चित मान्यताएं नहीं हैं । जीवन - विज्ञान में इन दोनों संभावनाओं की स्वीकृति है। जहां बौद्धिक विकास के लिए, सैद्धांतिक और प्रायोगिक प्रयोग चलते हैं वहां जीवन विकास के लिए, चरित्र विकास के लिए विद्यार्थी को सैद्धांतिक और प्रायोगिक प्रयोगों से गुजारा जाए। बहुत अधिक समय लगाना आवश्यक नहीं है । प्रतिदिन केवल पचास मिनिट लगाना पर्याप्त होगा । इतना प्रयत्न यदि विद्यार्थी पर किया जाए और उसे समय-समय पर प्रयोग की ओर अभिमुख किया जाए तो अनेक समस्याएं समाहित हो सकती हैं । afar विकास के लिए बहुत लंबे समय की अपेक्षा रहती है क्योंकि वह सब बाहर से गृहीत होता है। किंतु भावनात्मक विकास के लिए ज्यादा समय इसलिए अपेक्षित नहीं है कि वह भीतर से आता है । बौद्धिक ज्ञान बाहर से आता है, पुस्तकों और आंकड़ों से उसे लेना पड़ता है । भावनात्मक विकास में बाहर से कुछ लेना नहीं पड़ता, भीतर को जगाना पड़ता है, भीतर के रसायनों में परिवर्तन घटित करना होता है। इसलिए यह बहुत समय-साध्य या श्रम- साध्य अनुष्ठान नहीं है । यह सहज-सरल है । केवल अनुयोजन की आवश्यकता है । मैंने जीवन-विज्ञान के स्वरूप का प्रतिपादन किया है और उसके दोतीन नियमों की व्याख्या प्रस्तुत की है । जीवन - विज्ञान के प्रायोगिक पक्ष में प्रेक्षाध्यान और अनुप्रेक्षा का प्रयोग चलता है । पश्चिम में 'सजेस्टोलॉजी' का प्रयोग चलता है । यह अनुप्रेक्षा का ही प्रयोग है । यह प्रयोग स्वभाव परिवर्तन के लिए बहुत कारगर सिद्ध हुआ है । अनुप्रेक्षा का अर्थ है- स्वतः सूचना । यह सूचनात्मक पद्धति है । हम अभी अभय की अनुप्रेक्षा, मृदुता की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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