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________________ १८० अवचेतन मन से संपर्क ज्ञान बढ़ता है तो वह अनर्थ ही पैदा करता है। __आज यह सद्यस्क अपेक्षा है कि व्यक्ति अपनी चेतना को इतना जागरूक और प्रशिक्षित करे कि वह परिष्कार को घटित करते हुए ज्ञानार्जन की दिशा में आगे बढ़े। वह समस्याओं के सामने घुटने न टेके, समस्याओं के चक्रब्यूह को भेदकर बाहर निकल जाए । यह सब परिष्कार की प्रक्रिया से ही संभव हो सकता है। ___एक घुड़सवार कहीं जा रहा था। मार्ग में उसे पानी पीने की आवश्यकता महसूस हुई । एक रेहट पर वह रुका। स्वयं ने पानी पीया । घोड़े को पानी पिलाने लगा। घोड़ा रेहट की आवाज से चमकने लगा, पानी नहीं पीया । घुड़सवार ने रेहट के मालिक से कहा-'घोड़ा प्यासा है। इसे पानी पिलाना है । रेहट की आवाज को बन्द कर दो।' उसने रेहट चलाना बन्द कर दिया। आवाज बन्द हुई, साथ-साथ पानी निकलना भी रुक गया। घुड़सवार बोला-'भले आदमी ! मैंने आवाज बन्द करने के लिए कहा था, पानी बन्द करने के लिए नहीं कहा था।' रेहट के मालिक ने कहा-'तुम नहीं जानते । आवाज होना और पानी निकलना-दोनों साथ-साथ होते हैं । आवाज रुकेगी तो पानी भी रुकेगा। आवाज होगी तो पानी भी आएगा। दोनों एक साथ होंगे, अलग-अलग नहीं । हम पानी पीना चाहते हैं तो आवाज को भी सहना होगा। हम समस्याओं को नहीं रोक सकते । यह कभी संभव नहीं है कि सारी समस्याएं समाहित हो जाएं, समस्या रहे ही नहीं। जब सारी समस्याएं समाहित हो जाएंगी तो आदमी भी नहीं बचेगा। फिर आदमी रहेगा क्यों ? कहां? समस्याएं और आदमी साथ-साथ चलते हैं, साथ-साथ जीते हैं। आदमी को रहना है तो समस्याओं को भी रहना है। दोनों साथ रहें, पर घोड़े में आवाज सहने की क्षमता पैदा कर दें, जिससे कि वह आवाज होने पर भी पानी पी सके। आदमी को इतना परिष्कृत बना दें कि वह समस्या के रहते हुए भी सुख से जी सके। यह तभी संभव है जब उसमें भावनात्मक विकास होता रहे। __ जीवन विज्ञान का तीसरा अर्थ है-उन नियमों की खोज, जिनके द्वारा अचेतन मन को जगाया जा सके। प्राचीन साहित्य में स्थूल मन, स्थूलचित्त, सूक्ष्म चित्त या अन्तःकरण ये भेद प्राप्त होते हैं। आज के मनोविज्ञान ने मन के तीन विभाग किए हैं-अचेतन मन, अवचेतन मन और चेतन मन । मनोविज्ञान की मान्यता है कि जागृत मन बहुत कम शक्ति-संपन्न है । अतमन या सूक्ष्म मन बहुत शक्तिशाली है। वासनाएं, धारणाएं, मान्यताएं, संस्कार और वृत्तियां जागृत मन में नहीं हैं। जागृत मन बेचारा नौकर है। इन सब वृत्तियों का मूल स्रोत है---अचेतन मन । वहीं से सब कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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