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________________ नैतिकता की आधारशिला : काम-परिष्कार मन की शांति दे सकती है ? जिन्हें प्रचुरता से रोटी उपलब्ध है उनका मन भी प्रचुर रूप में अशांत बना हुआ है। जिन्हें रोटी की प्रचुरता है, वे बड़ी से बड़ी अनैतिकता और बुराई करने में नहीं हिचकते । हम इस सचाई को स्वीकार करें--रोटी ही सब कुछ नहीं है । रोटी के अलावा भी बहुत अपेक्षाएं हैं हमारे जीवन की । उन अपेक्षाओं की पूर्ति धर्म और मोक्ष से हो सकती हैं। हमें जाने-अनजाने तीसरे आयतन-धर्म में प्रवेश करना ही होगा। वह धर्म, जो प्रायोगिक है। हम श्वास प्रेक्षा का प्रयोग करते हैं । श्वास को देखना प्रायोगिक धर्म है। एक धर्म होता है केवल उपासना का। वह इतना लाभप्रद नहीं होता। श्वास को देखने का अर्थ है धर्म की चेतना को जगाना। धर्म की चेतना केवल ज्ञान की चेतना है, केवल दर्शन की चेतना है। कोरा ज्ञान और कोरा दर्शन, कोई संवेदन नहीं । श्वास देखते समय न प्रियता का संवेदन होता है और न अप्रियता का संवेदन होता है । अधर्म है-प्रियता और अप्रियता का संवेदन । धर्म है-कोरा जानना, कोरा देखना, केवल ज्ञाता-द्रष्टा होना। ___ काम-परिष्कार का बहुत बड़ा आलम्बन है-श्वास-प्रेक्षा । जैसे-जैसे श्वास के प्रति जागरूकता बढ़ती है, जैसे-जैसे ज्ञाताभाव और द्रष्टाभाव विकसित होता है, वैसे-वैसे काम का परिष्कार घटित होता जाता है, अर्थ की शुद्धि होती जाती है। काम और अर्थ के प्रति जो आसक्ति बनी हुई होती है, वह कम हो जाती है। परिष्कार की बात मूल की बात है, जड़ की बात है बहुत बड़ा तथ्य है। __समस्या से मुक्ति पाने का तात्पर्य है-काम और अर्थ से मुक्ति पाना । एक ओर है काम और अर्थ । दूसरी ओर है काममुक्ति और अर्थ मुक्ति । इन दोनों के बीच में है-परिष्कार । दो ध्रुवों के बीच हम चलते हैं । यदि परिष्कार होता रहे तो एक प्रकार के नए जीवन का उदय होगा । यदि परिष्कार की बात छूट जाती है तो जीवन का प्रकार बदल जाता है । फिर व्यक्ति में आग्रह पनपता है और वह यही कहता है-मुझे तो यही अपरिष्कृत जीवन ही जीना है। अपरिष्कृत अर्थ का भी आग्रह हो जाता है, व्यक्ति कहता है---मुझे तो इतना संचय करना ही है, फिर चाहे जैसे तैसे करूं। __ एक अनपढ़ आदमी बनारस चला गया। पंडितों का नाम सुना था। वहां गया । कुछ दिन रहा । घर लौटा । मां ने पूछा-काशी में जाकर क्या किया तूने ? उसने कहा-मां ! मैंने वहां सब पंडितों को जीत लिया। अनेक पंडित आए मेरे पास । मैंने सबको हरा दिया। मां आश्चर्य में पड़ गई । उसने सोचा, यह पढ़ा-लिखा तो नहीं है । काशी में पंडितों की भरमार है। यह कहता है, मैंने सबको जीत लिया। मां ने पूछा-कैसे जीता तूने, सब पंडितों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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