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सामाजिक चेतना
प्रश्न है। यदि उस में यह चेतना जाग जाए कि 'मैं अकेला हूं, तो फिर वह वस्तु के संग्रह में कोई कमी नहीं रखेगा और वह जितना संचय कर सकेगा, उतना करेगा। इसी दृष्टिकोण ने अनेक समस्याएं पैदा की हैं।
आज की बहुत सारी भ्रष्टताओं के पीछे 'मैं अकेला नही हूं इस चेतना के जागरण का अभाव काम कर रहा है। यदि यह चेतना प्रारम्भ से जाग जाए कि 'मैं अकेला नहीं हूं', पूरे समाज के साथ जी रहा हूं, पूरे समाज का सुख दुःख मेरा सुख-दुःख है, पूरे समाज का हित मेरा हित है और पूरे समाज का अहित मेरा अहित है तो समस्याओं का सुलझाव प्रारम्भ हो जाता है।
आज दो समस्याएं बहुत जटिल बन गई हैं। एक है आग्रह और दूसरी है संग्रह। समाज में जीने वाले व्यक्ति में आग्रह नहीं होना चाहिए और संग्रह की मनोवृत्ति भी नहीं होनी चाहिए। आज के समाज में आग्रह और संग्रह की मनोवृत्ति प्रबल है ।
प्राचीनकाल में विचारों का आग्रह बहुत था । दर्शन के क्षेत्र में इस आग्रह के कारण अनेक वाद-विवाद होते थे। उन वाद-विवादों का परिणाम अत्यन्त दुःखद होता था, फिर भी उसका बोलबाला था। कोई भी व्यक्ति अपने विचार के आग्रह से मुक्त होना नहीं चाहता। क्या कोई व्यक्ति विचार का इतना ठेकेदार बन सकता है कि मैं कहता हूं, वही सही है, मैं सोचता हूं, वही सही है ? यह ठेकेदारी कैसी ? व्यक्ति कोई ईश्वर या सर्वज्ञ तो नहीं है । सामान्य बुद्धि या प्रतिभा के साथ जीने वाला व्यक्ति इतना दायित्व कैसे उठाए कि मैं कहता या सोचता हूं, वही सही है । दूसरे जो कहते हैं, सोचते हैं, वह सारा असत्य है । अपने विचार के प्रति झुकाव होना, दृढ़ता का होना, एक सीमा तक ठीक है, किन्तु अपने विचार को सर्वांग सत्य मानकर दूसरों के विचार को कुचलने का प्रयत्न करना, यह कोई औचित्य नहीं है । इस आग्रह का परिणाम है विग्रह, संघर्ष और लड़ाइयां। इतिहास साक्षी है—जहां-जहां आग्रह पनपा है वहां-वहां विग्रह उभरा है । राजनीतिक जीवन-प्रणाली में भी यही हो रहा है। कहीं साम्यवाद है, कहीं समाजवाद है, कहीं एकतंत्र है और कहीं प्रजातंत्र है। इन प्रणालियों के कारण अनेक आग्रह पनपे हैं और यह मान लिया गया कि सह-अस्तित्व संभव ही नहीं है। दो विचार-प्रणालियां एक साथ नहीं चल सकतीं। सभी विचारप्रणालियों का यह लक्ष्य बन चुका है कि समूचे संसार को अपने विचारों में ढालना है। यह ढालने की प्रक्रिया केवल तर्क या बात तक ही सीमित नहीं रह गयी किन्तु युद्ध तक लड़ लिए गए। बड़े-बड़े युद्ध इस वैचारिक आग्रह के कारण हुए हैं।
दूसरी समस्या है-वस्तु का संग्रह । इसका भी परिणाम है विग्रह ।
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