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जहां साधुता सिसकती है
नव दीक्षित शिष्य से आचार्य ने कहा-तुम स्वाध्याय करो, पढ़ना शुरू करो। शिष्य ने कहा-महाराज ! क्यों पढूं? गुरु ने कहा-पढ़े बिना पूरा ज्ञान नहीं होता।
शिष्य ने कहा--महाराज ! मुझे ज्ञान की जरूरत क्या है ? आपकी कृपा प्राप्त हो गई है, आपका वरदहस्त प्राप्त हो गया है, फिर चिन्ता किस बात की है ? एक यक्ति को मकान, कपड़े, रोटी और पानी चाहिए, ये सभी आपकी कृपा से मिल रहे
आचार्य ने कहा-सारी बातें तो मिल रही हैं पर पढ़े बिना पता कैसे चलेगा के कहां क्या हो रहा है ? शिष्य बोला--महाराज ! मुझे सारा पता है कि कहां, कौन, क्या कर रहा है।
आचार्य बोले-तू समझता नहीं है। ये तो सारी लौकिक बातें हैं। खाना, पीना, कपड़ा, मकान--ये तो लौकिक हैं। ये इस जीवन यात्रा को चलाने वाली बातें हैं। इनसे साधुपन का क्या विशेष लाभ मिला ? दो प्रेक्षाएं
आचार्य ने आगे कहा--प्रेक्षा दो प्रकार की होती हैं। एक का नाम है अपरा और दूसरी का नाम है परा। अपरा विद्या और परा विद्या। अपरा प्रेक्षा और परा प्रेक्षा । जो अपरा प्रेक्षा है, वह लौकिक है, वर्तमानदर्शी है। परा प्रेक्षा अलौकिक है, दूरदर्शी है। वह केवल जो सामने है, उसी को नहीं देखती, वर्तमान में उपलब्ध है, उसी को नहीं देखती, दूर तक की बात को देखती है।
अपरा तोषमायाति प्रेक्षा संप्राप्य लौकिकम्।
परात दूरदर्शित्वाद् अलौकिकपदं व्रजेत।। सबसे कठिन है पर को देखना । हमारी इन्द्रियों की, बुद्धि और चिंतन की सीमा अत्यन्त छोटी है। जो लोग इनकी सीमा में जीते हैं वे छोटी बात को सोचते हैं और छोटी बात को देखते हैं। बड़े लक्ष्य की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। वे केवल दृश्य में उलझ जाते हैं, अदृश्य जगत् उनके लिए अगम्य बन जाता है। जब तक परा प्रेक्षा नहीं जागे, तब तक अलौकिक पद प्राप्त नहीं होगा। ज्ञानार्जन का मूल्य
शिष्य ने पूछा-गुरुदेव ! यह अलौकिक पद क्या है ? गुरु ने कहा-पढ़े बिना पता नहीं चलता। श्रुत स्वाध्याय ही एक ऐसा उपाय है जिसके द्वारा हम परोक्ष को प्रत्यक्ष कर सकते हैं। स्वर्ग किसने देखा है ? नरक किसने देखा है ? स्वाध्याय के
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