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________________ दो भाइयों का मिलन कितना सुन्दर था सौधर्म कल्प देवलोक और कितना सुन्दर था पद्मगुल्म विमान ! केतनी ऋद्धि थी, कितनी समृद्धि और कितना वैभव था ! उसके सामने चक्रवर्ती का वैभव कुछ भी नहीं है। अपने अतीत के वैभव को देखकर चक्रवर्ती पुलकित हो उठा केन्तु इस पुलकन के साथ-साथ एक वेदना भी उभर आई। उसने सोचा--अरे ! मेरा माई कहां गया ? एक नया प्रश्न खड़ा हो गया। मेरा भाई कहां है ? मैं अकेला हो गया। अपने भाई से बिछुड़ गया। मन में एक अकुलाहट और वेदना का भाव प्रबल हो गया। इसकी पीड़ा फूट पड़ी। वह बार-बार इस अर्द्ध-श्लोक को दोहराने लगा-- आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा। अलग अलग दुनिया मंत्री वरधनु ने देखा-सम्राट् को क्या हो गया ? पहले तो मूर्छित हुए थे। अब लगता है--दिमाग में कोई अस्त-व्यस्तता आ गई है। बहुत बार ऐसा होता है--जब कोई भीतर का दरवाजा खुलता है, आन्तरिक अनुभूतियां जागती हैं--उस समय आदमी जो चेष्टाएं करता है, जो सोचता और बोलता है, तब दूसरों को ऐसा लगता है-व्यक्ति पागल हो गया है। इस प्रकार की घटनाएं बहुत बार घटती हैं। ध्यान की गहराई में जाने वाला व्यक्ति भी ऐसी स्थिति में चला जाता है। देखने वाले लोग सोचते हैं--अमुक व्यक्ति को क्या हो गया ? वे घबरा जाते हैं। अलग अलग दुनिया है। एक समझदारों की दुनिया है। वहां समझदारी यह है-जो बनी-बनाई सीमा-रेखा है, उसमें रहे, वह समझदार है।जो उससे थोड़ा इधर-उधर चला जाए, वह पागल है। एक दूसरी दुनिया है, जिसमें जीने वाले लोग सोचते हैं--ये सब पागल हैं, जो मूर्छा से ग्रस्त हैं, विषय-भोगों में मूढ़ बने हुए है। मन्त्री की चिन्ता ऐसा ही कुछ हो रहा था चक्रवर्ती की सभा में। चक्रवर्ती जनता को पागल समझ रहा था और जनता चक्रवर्ती को पागल समझ रही थी। यह एक विचित्र स्थिति थी। मंत्री वरधनु ने सोचा--चक्रवर्ती को क्या हो गया है ? कहीं पगला तो नहीं गया है ? बार-बार अर्थहीन बात बोलता जा रहा है। कुछ भी अर्थ समझ में नहीं आ रहा है। अर्थ तो कुछ समझ में आना चाहिए। क्या कह रहे हैं ? कुछ भी पता नहीं चल रहा है। वरधनु मंत्री ही नहीं था, राजा का मित्र भी था। उसने कहा-राजन् ! आप क्या कर रहे हैं ? बार-बार इस प्रकार की असंबद्ध बातें करना अच्छा नहीं लगता। सामने नाटक हो रहा है, हजारों संभ्रांत नागरिक खड़े हैं। अनेक देशों के राजा यहां आए हुए हैं, उन पर क्या असर होगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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